पिछले दिनों संसद के दोनों सदनों ने नालंदा विश्वविद्यालय विधेयक, 2010 को पारित कर दिया। सांसदों ने यह जताया कि इस अंतरराष्ट्रीय शैक्षणिक संस्थान के बनने से भारतीय ज्ञान का पुनरुत्थान होगा। पर इस राष्ट्रवादी भावुकता में विवेक का सही प्रयोग किया गया हो, ऐसा नहीं दिखता। साथ ही यह सदन की गतिविधियों के प्रति सदस्यों की संजीदगी को भी रेखांकित करता है।। नालंदा की प्रस्तावित योजना मूल भारतीय विचारधारा को संविर्द्धत करने की बजाय घातक भी साबित हो सकती है। आम धारणा यही है कि इस संस्थान से प्राचीन नालंदा महाविहार, जिसे 12वीं सदी के अंत में बख्तियार खिलजी ने ध्वस्त कर दिया था का 21वीं सदी में नया कलेवर खड़ा होने वाला है। यहां यह जानना जरूरी है कि भारतीय जनमानस में नालंदा का उसी प्रकार से महत्व है, जिस प्रकार पाश्चात्य सभ्यता में अलेक्जेंड्रिया का प्राचीन ग्रंथालय का था। यह संस्थान भी जूलियस सीजर के मिस्त्र पर आक्रमण के दौरान आग में स्वाहा हो गया था। करीब डेढ़ दशक की मेहनत के बाद अलेक्जेंड्रिया (मिस्त्र) में अक्टूबर 2002 में एक नए और अत्याधुनिक अलेक्जेंड्रिया पुस्तकालय का उद्घाटन हुआ। इस परियोजना से मिस्त्र के राष्ट्रपति होस्नी मुबारक और उनकी पत्नी सुसन मुबारक जुड़ी रहीं। इस परियोजना को यूनेस्को का भी भरपूर समर्थन मिला। यह कोई आश्चर्य नहीं कि यह संस्थान आज एक बार फिर से उत्कर्ष पर है। 2008-09 में यहां 717 सांस्कृतिक कार्यक्रम, 44 कार्यशाला, 89 प्रशिक्षण व शिक्षा कार्यक्रम और 316 कला शिविरों का आयोजन किया गया। इसकी तुलना में नालंदा संस्थान का काम एक मेंटर ग्रुप यानी अभिभावक मंडली को सौंप दिया गया, जिसमें भारतीय परंपरा या बौद्ध धर्म का एक भी ज्ञाता नहीं है। मंडली में शामिल अमर्त्य सेन, सुगतो बासु, लॉर्ड मेघनाद देसाई और तानसेन सेन सभी अनिवासी भारतीय हैं। पहले से चल रहे नवनालंदा विहार के किसी भी स्तर के अधिकारी को इसमें शामिल नहीं किया गया। डॉ. लोकेश चंद्र या दलाई लामा जैसे बौद्ध शिक्षा के ज्ञाताओं को भी इसमें कोई स्थान नहीं मिला। दिल्ली विश्वविद्यालय के लेडी श्रीराम कॉलेज की एक रीडर डॉ. गोपा सभरवाल को प्रस्तावित विश्वविद्यालय का कुलपति किस आधार पर बनाया गया यह भी एक अलग रहस्य ही है। यदि केंद्रीय संस्कृति मंत्रालय के वार्षिक रपट को देखें तो पता चलता है कि नालंदा का पुनर्जन्म तो आज से छह दशक पूर्व ही हो चुका था और पिछले दो दशक से वह इस मंत्रालय के संरक्षण में उन्नति कर रहा है। वास्तविकता भी यही है। नालंदा का पुनर्जन्म सन 1951 में ही हो चुका था और इसे नवनालंदा महाविहार नाम दिया गया था। यह सरकार के संज्ञान में है, क्योंकि यह संस्कृति मंत्रालय के अंतर्गत एक स्वायत्त संस्थान है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने इसे 2006 में डीम्ड यूनिवर्सिटी का दर्जा भी प्रदान कर रखा है। इसकी वार्षिक रपट और हिसाब-किताब संसद में हर साल पेश की जाती है। इस साल भी ये दस्तावेज लोकसभा और राज्यसभा में क्रमश: 11 और 12 अगस्त को रखे गए, परंतु मात्र दस दिनों के अंतराल में सांसद संभवत: इस बात को भूल गए। बहस के दौरान नवनालंदा महाविहार का उल्लेख न तो सत्तापक्ष और न ही विपक्ष ने किया। नवनालंदा महाविहार के प्राण पुरुष और पहले निदेशक भिक्षु जगदीश कश्यप थे। वह संस्कृत, पाली और बौद्ध धर्म के ज्ञाता थे और सिंहल में भिक्षुव्रत ग्रहण किया था। भिक्षु जगदीश कश्यप ने देवनागरी लिपि में पाली त्रिपिटक के 41 खंड प्रकाशित किए और शोधकर्ताओं के लिए समग्र बौद्ध वांगमय उपलब्ध कराया। मार्च 1956 में संस्थान को अपना भवन मिला, जिसका उद्घाटन तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने किया था। भिक्षु जगदीश कश्यप के अनुपम व्यक्तित्व, ज्ञान, निष्ठा और त्याग से प्रभावित होकर सिंहल, बर्मा, जापान, कंबोडिया, थाइलैंड आदि देशों के कई छात्र और बौद्ध भिक्षुओं ने नवनालंदा महाविहार में दाखिला लिया। 12 जनवरी 1957 को दलाई लामा, जो तब तक तिब्बत से नहीं भागे थे और पंचेन लामा ने यहीं चीनी तीर्थयात्री व्हेनसांग की अस्थियां तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को सौंपा था। ये अस्थियां तत्कालीन चीनी प्रधानमंत्री चाऊ एन लाई ने भिक्षु जगदीश कश्यप के अनुरोध पर नवनालंदा महाविहार को भेंट की थी, परंतु महाविहार में अपर्याप्त सुरक्षा व्यवस्था के कारण ये अस्थियां आज भी पटना संग्रहालय में रखी हुई हैं। संस्कृति मंत्रालय की 2008-09 की वार्षिक रपट बताती है कि कुल 397 छात्रों में से 95 बर्मा, थाइलैंड, श्रीलंका, कंबोडिया और बांग्लादेश के थे। मंत्रालय के 2007-08 की वार्षिक रपट के मुताबिक प्राचीन नालंदा के खोए हुए गौरव को पुनस्र्थापित करने के उद्देश्य से महाविहार ने कई विश्वविद्यालयों और प्रतिष्ठानों यथा राज्य परियाति शासन विवि, अंतरराष्ट्रीय थेरवाद प्रचार विवि, सितायागी अंतरराष्ट्रीय बौद्ध अकादमी (सभी रंगून, म्यांमार), पुणे विवि आदि के साथ आपसी समझौते पर हस्ताक्षर किया है। संस्थान ने नियमित रूप से उच्च स्तरीय शोधग्रंथों का प्रकाशन भी किया है। यहां साल भर परिचर्चा आदि आयोजित होती है। पिछले सात-आठ सालों से यहां नालंदा महोत्सव भी मनाया जाता रहा है। 12 फरवरी 2007 को महाविहार के व्हेनसांग स्मृति सभागार को जनता के लिए खोल दिया गया। इस अवसर पर करीब सौ सदस्यों के एक शिष्टमंडल के साथ चीन के विदेशमंत्री ली झाओसिंग उपस्थित थे। तब केंद्रीय पर्यटन मंत्री अंबिका सोनी ने नवनालंदा सांस्कृतिक ग्राम विकसित करने की घोषणा की थी और तदनुसार 20 नवंबर 2008 को तत्कालीन पर्यटन और संस्कृति मंत्री कांति सिंह ने शिल्पग्राम और उन्मुक्त नाट्य मंच का उद्घाटन किया था। इन तथ्यों से पता लगता है कि नवनालंदा एक जीवंत और अंतरराष्ट्रीय स्तर का संस्थान है, जिसकी मेंटर ग्रुप ने सुधि नहीं ली। नालंदा विवि संस्थान द्वारा इसे केंद्र में रखने की बजाय दरकिनार कर देना अन्याय होगा। इस तरह तो नालंदा संस्थान की आत्मा ही तिरोहित हो जाएगी। ऐसा लगता है कि यह एक सोची समझी रणनीति के तहत किया जा रहा है। मेंटर ग्रुप का गुप्त उद्देश्य संभवत: अंतरराष्ट्रीयता के नाम पर नालंदा से भारतीयता के बोध को समाप्त करना है। इसलिए अमर्त्य सेन मिस्त्र के अल अजहर और ब्रिटेन के कैंब्रिज व आक्सफोर्ड विश्वविद्यालयों से तालमेल की बात कर रहे हैं, परंतु नालंदा परंपरा के वाहक तिब्बतियों को दूर हटा रहे हैं। तिब्बतियों के बीच नालंदा का स्थान अत्यंत पावन है। नालंदा चार ऐसे भारतीय बौद्ध पंडितों-पद्मसंभव, विरूप, नारोपा व आतिश दीपंकर-की विद्यापीठ थी, जिनके नाम पर तिब्बती बौद्ध मत की चार धाराएं-निंगमा, काग्यु, शक्यापा और गेलुपा बनीं। 1436 में फेंपो, मध्य तिब्बत में प्राचीन नालंदा विहार के आकार-प्रकार में पाल नालंदा धर्म विहार बनाया गया। 1975 में कनाडा में बसे तिब्बतियों ने हेलिफैक्स में नालंदा अनुवाद समिति का गठन किया, जिससे नालंदा में लिखी संस्कृत पुस्तकें अंग्रेजी में उपलब्ध हो सकें। नालंदा के मानसपुत्रों-तिब्बतियों को दूर रख कर यह कैसा नालंदा बन रहा है?(प्रियदर्शी दत्ता,दैनिक जागरण,राष्ट्रीय संस्करण,9.9.2010)
ढेर सारी जानकारी देती पोस्ट।
जवाब देंहटाएंआंच पर संबंध विस्तर हो गए हैं, “मनोज” पर, अरुण राय की कविता “गीली चीनी” की समीक्षा,...!