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12 सितंबर 2010

हिन्दी का पाया आज भी मजबूत

अंग्रेजी के प्रचार-प्रसार के बहाने राजभाषा हिन्दी को उखाड़ने की तमाम कोशिशों के बावजूद हिन्दी आज भी समाज में पूरी मजबूती के साथ ख़ड़ी है। स्कूलों की शुरुआती प़ढ़ाई से लेकर उच्चतम स्तर की व्यावसायिक प़ढ़ाई तक में अंग्रेजी का बोलबाला बनाए रखने के सारे हथकंडे भी जनभाषा हिन्दी को नहीं डिगा सके हैं। आज भी हिन्दी देश की सबसे ब़ड़ी संपर्क भाषा है।

ये तथ्य "नईदुनिया" द्वारा हिन्दी दिवस के मौके पर कराए गए विशेष सर्वे में सामने आए हैं। राजधानी दिल्ली सहित हिन्दी भाषी आठ राज्यों में किए गए इस सर्वे के नतीजे बताते हैं कि सिर्फ ३४ प्रतिशत लोग ही मानते हैं कि हिन्दी की हैसियत कम हो रही है। यह भी राय सामने आई कि हिन्दी दिवस या हिन्दी पखवाड़ा जैसे आयोजन हिन्दी के प्रचार प्रसार में मददगार साबित होते हैं।

इस सर्वे के लिए ७५० संवाददाताओं ने कुल ८४४२ लोगों से बातचीत की। "नईदुनिया" ने दिल्ली, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा, उत्तराखंड, मध्य प्रदेश और छत्तीसग़ढ़ में लोगों से यह जानने की कोशिश की कि हिन्दी भाषी राज्यों में हिन्दी की दशा क्या है, उसके विकास की क्या स्थिति है, हिन्दी के नामी लेखकों और उनके कामकाज से हिन्दी पट्टी के लोग कितने वाकिफ हैं, वे क्या प़ढ़ना पसंद करते हैं और क्या हिन्दी के अखबारों में अंग्रेजी के शब्दों का ब़ढ़ता प्रचलन उन्हें रास आ रहा है या फिर वे अखबारों द्वारा शब्दों की इस मिली-जुली खिच़ड़ी को मजबूरी में खा रहे हैं।



राष्ट्रभाषा की हालत और इसके गौरव की फिक्र करने वालों के लिए एक सुखद समाचार है कि व्यावहारिक रूप से हिंदी की हैसियत ब़ढ़ रही है। हालांकि कहा, माना और देखा तो यही जाता है कि अंग्रेजी के साए में हिंदी पिछ़ड़ रही है लेकिन इस आमफहमी को नईदुनिया के एक ताजा सर्वे ने झुठला दिया है । दिल्ली समेत देश के आठ हिंदी भाषी राज्यों में किए गए इस सर्वे से खुलासा हुआ है कि व्यावहारिक दृष्टि से हिंदी की स्वीकार्यता ब़ढ़ रही है और राष्ट्रभाषा ने अंग्रेजी समाज में भी अपने चाहने वाले बनाए-ब़ढ़ाए हैं लेकिन इसके साथ ही सर्वेक्षण में थो़ड़ा चौंकाने वाली यह बात भी उभर कर आई है कि दिल्ली-एनसीआर और कई ब़ड़े शहरों में हिंदी के नामी लेखकों और उनके कामकाज से बहुत से लोग नावाकिफ हैं । सर्वे में शामिल अधिकांश लोग मानते हैं कि दिवस और पखवा़ड़ों के आयोजन से हिंदी के प्रचार-प्रसार में भी मदद मिलती है लेकिन ऐसे लोगों की संख्या भी कुछ कम नहीं जो इन आयोजनों को महज रस्म-अदायगी मानते हैं। अधिकांश लोगों का यह भी कहना है कि हिन्दी के अखबारों में अंग्रेजी के शब्दों का प्रचलन सही है । जहां तक पठन-पाठन का सवाल था तो ज्यादातद लोग कहानी प़ढ़ना पसंद करते हैं, उसके बाद कविता और फिर लघुकथा व उपन्यास । हिंदी दिवस के मौके पर नईदुनिया ने दिल्ली, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा, उत्तराखंड, मध्य प्रदेश और छत्तीसग़ढ़ में एक सर्वे कर यह जानने की कोशिश कि हिन्दी भाषी राज्यों में हिन्दी की दशा क्या है, उसके विकास की क्या स्थिति है,हिन्दी के नामी लेखकों और उनके कामकाज से हिन्दी पट्टी के लोग कितने वाकिफ हैं, वे क्या प़़़ढ़ना पसंद करते हैं और क्या हिन्दी के अखबारों में अंग्रेजी के शब्दों का ब़ढ़ता प्रलचन उन्हें रास आ रहा है या फिर वे अखबारों द्वारा शब्दों की इस मिली-जुली इस खिच़ड़ी को मजबूरी में खा रहे हैं। दिवस और पखवा़ड़ों के आयोजन और इनकी प्रासंगिकता पर भी रायशुमारी की गई। इस सर्वे के लिए नईदुनिया के ७५० संवाददाताओं ने कुल ८, ४४२ लोगों से बातचीत की। इसमें ४६ प्रतिशत लोगों ने यह माना कि व्यावहारिक रूप से हिन्दी की हैसियत ब़ढ़ रही है। ३४ प्रतिशत ने इसको खारिज किया जबकि २० फीसदी लोग इस बात से अनजान निकले ।

किसी न किसी वजह से चर्चाओं में रहने वाले वरिष्ठ साहित्यकार राजेंद्र यादव आम जनता के बीच भी खासे जाने जाते हैं। यादव के अलावा मृणाल पांडे, नामवर सिंह, अशोक वाजपेयी और निदा फाजली को भी लोग उनके नाम और काम से जानते हैं। सर्वे में शामिल ८४ प्रतिशत लोगों का कहना है कि वे विश्वनाथ त्रिपाठी, पद्मा सचदेव, कृष्णा सोबती, मन्नाू भंडारी, कुंवर नारायण, केदारनाथ सिंह, विनोद कुमार शुक्ल और श्रीलाल शुक्ल को भी उनके नाम और काम से जानते हैं। १६ प्रतिशत लोगों को इन लेखकों के बारे में कुछ नहीं पता था। यहां इस बात का खुलासा करना भी जरूरी है कि इन साहित्यकारों को इनके नाम व काम से जानने वालों का यह प्रतिशत कुल लोगों की बातचीत के बाद का औसत है। यानी इन रचनाकारों को कुछ जगहों पर बहुत लोग नहीं जानते थे और कहीं जानकार लोगों की संख्या बहुत रही लेकिन इस सवाल के जवाब में शहर या राज्यवार आंक़ड़ा हैरान करता है। पता चला है कि दिल्ली-एनसीआर और लखनऊ जैसे शहरों के बाशिंदों का एक ब़ड़ा हिस्सा हिन्दी के इन लेखकों को न तो नाम से जनता, काम की तो छो़ड़ ही दीजिए। इसी तरह हिन्दी अखबारों में अंग्रेजी के शब्दों के प्रचलन की बात है। सर्वे में शामिल ४६ प्रतिशत लोग इस प्रचलन को सही मानते हैं लेकिन दिल्ली, मध्य प्रदेश, छत्तीसग़ढ़ और पटना के ज्यादातर लोग इस प्रचलन को सही नहीं मानते। देश की राजधानी दिल्ली के करीब ७० प्रतिशत लोगों का कहना है कि यह परंपरा ठीक नहीं है। लोगों का कहना है कि कई अखबार तो जबरन अंग्रेजी शब्द ठूंस देते हैं। दिल्ली के साथ-साथ मध्य प्रदेश के ५२ प्रतिशत, छत्तीसग़ढ़ के ५५ फीसदी और पटना के करीब ६० प्रतिशत लोगों इस प्रचलन को उचित नहीं मानते। हालांकि साथ ही लोग यह भी कहते हैं कि यदि अंग्रेजी का कोई शब्द बोलचाल में लगातार इस्तेमाल हो रहा है और वह प्रयोग अनावश्यक भी नहीं लग रहा तो ऐसा किया जा सकता है लेकिन पाठकों पर जबरन अंग्रेजी थोपना सही नहीं है। हां, हिन्दी की व्यावहारिक दृष्टि से ब़ढ़ती हैसियत को लेकर ज्यादातर लोग एकमत दिखाई देते हैं। दिल्ली के ७० प्रतिशत, चंडीग़ढ़ के ८५, प्रतिशत, देहरादून के ६५ प्रतिशत, रायपुर के ६० प्रतिशत और सर्वे में शामिल लखनऊ के ७० प्रतिशत लोग मानते हैं कि व्यावहारिक रूप से हिन्दी ब़ढ़ रही है। मध्य प्रदेश के ३८ प्रतिशत लोग तो इस बात को मानते हैं कि हिन्दी ब़ढ़ रही है लेकिन ४४ प्रतिशत लोग इस बात से इनकार कर देते हैं। इसी तरह सर्वे में शामिल किए गए पटना के ७४ प्रतिशत लोगों ने कहा कि हिन्दी ब़ढ़ रही है लेकिन ९० लोग इस बात से इनकार करते हैं। जब प़ढ़ने की बात आती है तो ज्यादातर लोग कहानी को प्राथमिकता देते हैं । सर्वे में शामिल ३४ प्रतिशत लोगों ने कहा कि वक्त मिलने पर वे कहानी प़ढ़ना पसंद करते हैं और २६ प्रतिशत लोगों का कहना था कि वे समय होता है तो कविता प़ढ़ते हैं। इनके बाद लघुकथा (१६) उपन्यास (१५) और नाटक के ९ प्रतिशत पाठक बनते हैं। अधिकांश लोग दिवस और पखवा़ड़ों के आयोजन को सही मानते हैं लेकिन इसे रस्म-अदायगी मानने वालों का प्रतिशत भी कम नहीं है। यानी ऐसे आयोजनों को सही मानने और न मानने वालों में ब़ड़ा अंतर नहीं है। यदि ४४ प्रतिशत लोग यह कहते हैं कि ऐसे आयोजन ठीक हैं तो सर्वे में शामिल ४१ प्रतिशत लोग इन आयोजनों को खानापूर्ति मानते हैं । हां, जो लोग इन आयोजनों को सही मानते हैं ,कहते हैं कि चाहे थो़ड़ा बहुत ही सही इससे हिन्दी का भला तो होता ही है। इस बात का भी खुलासा
होता है कि फिल्मों के अलावा टीवी की दुनिया में हिंदी का तेज़ गति से व्यावसायिक इस्तेमाल बढ़ रहा हकुछ नए क्षेत्र हैं जहाँ हिंदी अपने पाँव पसार रही है .कम्पुटर,मोबाइल,इन्टरनेट पर भी हिंदी ने दमदार उपस्थिति दर्ज कराइ हैदुष्यंत शर्मा ,नई दुनिया,दिल्ली संस्करण,१२.९.2010) ।

3 टिप्‍पणियां:

  1. प्रिय शिक्षा मित्र जी !

    सबसे पहले आपको प्यारभरा नमस्कार और शिकिया जो आपने यह ब्लॉग लिखा |

    क्यिंकि इस ब्लॉग पर वह सब कुछ है जो एक शिक्षित मनुष्य की चाहिए |

    आपके ब्लॉग की जितनी तारीफ की जाये कम है |

    परन्तु जब भी मै आपके ब्लॉग पर कुछ पढने की मंशा से आता हु तो बड़ी निराशा हाथ लगती है |
    जिसका कारन है आपके ब्लॉग का स्क्रोल्लिंग प्रोब्लेम , बहोत ही धीमी गति से आपका ब्लॉग खुलता है और
    जब पन्ने को ऊपर या निचे स्क्रोल करने की कोशिश करता हु तो ब्लॉग बुरी तरह से हँग हो जाता है |
    आपसे नम्र विनंती है की कृपया अपना टेम्पलेट को सादा रखें , और अनावश्यक सामग्री हटायें ताकि आपका ब्लॉग जादा

    यूजर फ्रेंडली हो |

    आशा है की आप मेरी विनती पर गौर करेंगे |
    आपके सम्पूर्ण लेखन से जो ज्ञान मिला उससे अनुग्रहित हु |
    बहोत बहोत शुक्रिया !

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  2. प्रिय शिक्षा मित्र जी !

    कृपया लेबल और सभी पोस्ट आसानी से दिखें इसतरह लगाने का कष्ट करें |

    शुक्रिया |

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  3. बहुत अच्छी प्रस्तुति।हर वर्ष हिंदी दिवस के अवसर पर विभिन्न कार्यक्रमों का आयोजन करके सरकारी विभा़ग अपने को भाषा और संचार की मुख्य धारा से जोड़ता है। सरकारी संस्थाओं का ज्यों-ज्यों आम जनता से संपर्क बढ़ता जाएगा त्यों-त्यों उन पर हिंदी का दबाव भी बढ़ता जाएगा। जैसे-जैसे आम जनता की पहुंच प्रशासन के गलियारों में बनती जाएगी हिंदी के लिए अपने आप जगह बनती जाएगी। हिंदी क्षेत्र पर अगर बाजार का दबाव है तो बाजार पर भी हिंदी की जबर्दस्त दबाव है। आज बाजार हिंदी की अनदेखी कर ही नहीं सकता। हार्दिक शुभकामनाएं!
    काव्यशास्त्र (भाग-1) – काव्य का प्रयोजन, “मनोज” पर, आचार्य परशुराम राय की प्रस्तुति पढिए!

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