बिहार में,हिन्दी विकास के नाम पर अब तक घ़िड़याली आंसू ही बहाए जाते रहे हैं । हिन्दी दिवस पर रस्म अदायगी के तौर पर कार्यक्रम होते हैं और हिन्दी को उचित सम्मान दिलाए जाने की कस्में खाई जाती हैं । विशेष सप्ताह और पखवा़ड़े का आयोजन का कर्तव्यों की इतिश्री समझ ली जाती है । आयोजनों के समाप्त होते ही सबकुछ पूर्ववत चलने लगता है और हिन्दी एक कोने में ठगी सी रह जाती है । हर साल यही दोहराया जाता है । यही कारण है कि हिन्दी भाषी प्रदेशों में भी इस भाषा का वह स्थान नहीं मिल पाया है जिसकी वह हकदार है। बिहार में कभी भोजपुरी के लिए आंदोलन होते हैं तो कभी मैथिली को उचित दर्जा के नाम पर सियासत गरमाने लगती है। अंगिका और वज्जिका के विकास की बात भी राजनीति के तहत ही की जाती है। हिन्दी के नाम पर कोई ब़ड़ा वोट बैंक आंदोलित नहीं होता इसलिए क्षेत्रीय भाषाओं के विकास के लिए चिल्ल-पों मचाने वाले लोग भी इस मुद्दे पर चुप्पी साध लेते हैं । अंग्रेजी पटरानी बनी हुई है और हिन्दी की हैसियत दासी से ऊपर नहीं उठ पाई है । बिहार से प्रदेश में भी सरकारी कामकाज पर अंग्रेजी ही हावी है । गरीबी और दरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों के हालात पर भी अंग्रेजी में शोध रिपोर्टें प्रकाशित हो रही हैं जिनकी भूख मिटाने की कसमें खाई जाती हैं वे अलग-थलग ही रहते हैं और हिन्दी किसी कोने में सिसकती रहती है ।
हिन्दी का शिक्षण और पठन-पाठन क ख ग तक ही सिमटता जा रहा है । हिन्दी साहित्य के अध्ययन का माहौल खत्म हो रहा है । शायद यही कारण है कि तेरह साहित्यकारों में से ऐसा कोई एक नाम भी नहीं है जिसे सभी लोग जानते हों। "राग दरबारी" के कारण श्रीलाल शुक्ल की लोकप्रियता हिन्दी प्रदेशों में ब़ढ़ी है। उपन्यास को पसंद करने वाले लोगों की संख्या कविता और कहानी के पाठकों से अधिक है । नाटक और लघु कथा के पाठक गिने-चुने ही हैं ।
आज जब कई अखबार हिंग्रेजी और हिंगलिश के प्रयोग को आजमाते हुए हिन्दी-अंग्रेजी की मिश्रित भाषा का उपयोग कर रहे हैं तब भी आम जनता को इसे पसंद नहीं करती । बिहार में ६० फीसदी लोगों ने हिन्दी अखबार में अंग्रेजी शब्दों के इस्तेमाल को गलत बताया है । सिर्फ ३८ फीसदी लोग ही इसे जायज ठहराते हैं जबकि दो प्रतिशत लोग इस पर चुप्पी साध लेते हैं ।
हिन्दी के नाम पर हो रहे ढोंग से जनता बखूबी परिचित है। फिर भी ६२ फीसदी लोग मानते हैं कि हिन्दी दिवस के आयोजनों से कुछ न कुछ फायदा तो होता ही है। ३१ फीसदी लोग इन आयोजनों को फिजूल मानते हैं और सात प्रतिशत लोग अपनी राय व्यक्त नहीं करना चाहते । सरकारी और हिन्दी चिंतकों के तमाम प्रयासों के बावजूद आम लोगों की राय में हिन्दी की हैसियत व्यावहारिक रूप से नहीं ब़ढ़ी है । पैंतालीस फीसदी लोग मानते हैं कि हिन्दी की स्थिति यथावत है जबकि सैंतीस प्रतिशत लोगों का मानना है कि हिन्दी की हैसियत ब़ढ़ी है (नई दुनिया,दिल्ली,12.9.2010)।
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