अभी तक मैं इस बात का विरोध करती आई थी कि अपने देश में अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक क्या होता है। मर्दुमशुमारी (जनगणना) की बात तो सरकार जाने मगर किसी भी देश के नागरिक एक तरह के व्यवहार के हकदार होते हैं। अब बात उठी है अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक लेखकों की। उनके विषय, कथावस्तु की। अक्सर भाषा लेखकों को बांटती है कि कौन सा लेखक किस भाषा का अदीब है। मैंने जब उर्दू साहित्य पढ़ना शुरू किया तो वह धर्म से जुड़ा साहित्य नहीं था। न ही उर्दू में इस तरह का तास्सुब था वह लिखा जाता, उर्दू लेखक जो लिखना चाहते थे। उसे हिंदू, मुसलमान, सिख और ईसाई के बीच बांटकर पढ़ने का मामला नहीं था। इसलिए उनके किरदार भी उनके परिवेश के ही होते थे, जिनसे हमें कभी अजनबियत का अहसास ही नहीं जागा कि कौन अपना और पराया है। प्रेमचंद, कृश्नचंदर, बलवंत सिंह, रामलाल, राजिंदर सिंह बेदी, उपेंद्र नाथ अश्क, प्रकाश पंडित, वेद राही जैसे हिंदी के लेखकों ने हमें उन किरदारों से मोहब्बत करनी सिखाई जो हमारी तरह नहीं थे। लेकिन वह हमारे इतने करीब आ गए कि हमें लगा ही नहीं कि वे हमारी कौम के नहीं हैं और अपने से लगने लगे।
आज से पचास वर्ष पहले जब अपनों से लगाव का यह सफर शुरू हुआ तब पता नहीं था कि हिंदी में लिखने वालों की यह पहचान भी की जाएगी- "हिंदी के मुस्लिम लेखक" या फिर "मुस्लिम परिवेश की कहानियां" । जिस जबान के जरिए हमने १८५७ की जंग लड़ी थी उसे ही हमने विदेशी करार दे दिया क्योंकि १९४७ तक आते-आते देश का बंटवारा हो गया था। लेकिन यह बंटवारा उर्दू जबान बोलने वालों के उत्तर प्रदेश का नहीं था, बल्कि पंजाब में पंजाबी बोलने वाले हिंदू-मुसलमानों की जमीन का हुआ था। सियासत अपना फायदा देखती है, सच और तर्क नहीं। बहरहाल, यह दौर भी गुजरा और अब राजनीति ने पैंतरा बदला तो सवाल उठा कि अल्पसंख्यक क्या लिख रहे हैं और अल्पसंख्यकों पर कौन-कौन से लेखक लिख रहे हैं यानी सृजनात्मकता भी मुख्यधारा से हटकर धर्म और भाषा के खानों में बांटने को उतारू हो गई। बहुत पहले सत्येंद्र कुमार ने "जहाज" नाम से एक कहानी लिखी थी। कहानी क्या थी अपने में एक हसीन बयान था। मुस्लिम अमीर घरानों की तबाही का ऐसा जीवंत और दिल को हिला देने वाला सच था जो उस दौर को जीने वाले लेखक ही लिख सकते थे। अब सवाल यह उठता है कि यह चमत्कार हुआ कैसे? वह भी सत्येंद्र कुमार की कलम से। आश्चर्य से भरा यह सवाल जितना गहरा हो सकता है, जवाब उतना ही आसान। आखिर उस साझा भारतीय सामाजिक बुनावट और बनावट से सत्येंद्र कुमार आंख बंदकर के आस-पड़ोस से दूर तो नहीं जी रहे थे। वह भी तो उसी में सांस ले रहे थे जहां यह सब घट रहा था फिर भी यह करिश्मा कैसे हुआ, जबकि बहुत से ऊर्दू के लेखक उस तरह की अनुभूतियों, अवलोकन और संवेदना को जी रहे होंगे मगर उनकी नजर वहां तक नहीं पहुंच पाई। सच तो यह है दिल पर असर डालने वाली और महसूस होने वाली बातें सीमित नहीं रह पाती हैं, उसका विस्तार सरहदों के पार चला जाता है जो "जहाज" कहानी के साथ हुआ। इसके ठीक विपरीत प्रेमचंद की कहानी "ईदगाह" है। वह दीवाली के परिवेश के साथ भी अपनी बात कह सकते थे। बाद के लेखकों में स्वयं प्रकाश "क्या तुमने कोई सरदार भिखारी देखा है?" लिख डालते है तो उषा किरण खान "हसीना मंजिल" पर कलम उठाती हैं। अब इसमें यह पता लगाना बहुत मुश्किल है कि किसके किरदार अल्पसंख्यक हैं और विषय भी। लेखक अपने आस-पास या समाज में कुछ घटता देखता और कुछ कहना चाहता है तो वह पाठकों से ही तो अपने अनुभव बांटेगा इसमें जात, बिरादरी, धर्म कहां से आ कूदते हैं? यदि पाठक अपने प्रिय लेखक की रचनाओं को इस दृष्टि से पढ़ेगा तो फिर वह रस क्या खाक लेगा? यह बात बहुत मायूसकुन है।
जो साहित्य को इस तरह बांटकर देखने की कोशिश में लगे हैं और कहानी में कहानी से ज्यादा विमर्श तलाश करने लगे हैं, वे दरअसल संकीर्ण सोच को न केवल बढ़ावा दे रहे हैं बल्कि इनसान को इनसान से अलग कर रहे हैं। इंतजार हुसैन की कहानियों में इस्लामी सोच की जगह हिंदू मानसिकता का प्रभाव ज्यादा है। उससे उन्हें प्रेरणा मिलती होगी। उनको अपने विषय चुनने की पूरी आजादी है। तस्लीमा ने भी "लज्जा" लिखी थी। वह उसके दौर का सच था। उसमें हम इनसानियत की तलाश न करके सियासी नजरिए से संपूर्ण रचना को यह कह देते हैं कि वह तो अल्पसंख्यकों पर लिखी कृति है। एक लेखक कहीं पर अल्पसंख्यक बना दिया जाता है कहीं पर अल्पसंख्यकों पर लिखने वाला बहुसंख्यक। अजीब तमाशा है कि संवेदनाओं को हम तराजू पर रखकर तौलने लगे हैं। उसका पैमाना क्या है? उसमें कलात्मक सौंदर्यबोध, सृजनात्मकता, भाषा, सोच और किरदार को गढ़ने वाली चाबुकदस्ती का तो फिर कोई कमाल ही नहीं माना जाएगा। अभी उभरती लेखिका सादिका सहर की रचना "मिताशा कोई कहानी सुनाओ" को पढ़िए जिस तरह का समाज उन्होंने उठाया है उसमें बिना जिए वे कैसे लिख सकती थी? अल्पसंख्यक होकर बहुसंख्यक समाज का खूबसूरत पारिवारिक चित्रण वह कैसे संभव कर पाईं। वहीं सीमा शफक की कहानी "हम बैकैद" बिल्कुल नए धरातल पर ले जाकर खड़ा करती है। यहां हिंदू और मुसलमान दोनों धर्म से उठाए गए किरदार हैं। कहानी के अंत तक आते-आते आपको गहरा झटका लगता है। बद्दीउज्जमा अब इस दुनिया में नहीं हैं मगर उनका "सभापर्व" नामक उपन्यास तो मौजूद है। यह उपन्यास देश का बंटवारा, खानदानों का टूटना, हिंदू-मुसलमान, सुन्नी-शिया, ब्राह्मण-दलित भेदभाव सबको एक साथ लेकर चलता है और चकित करता है। उसी तरह विकास झा का उपन्यास "मैकलुस्कीगंज" जो एंग्लोइंडियंस पर लिखा गया रोचक और महत्वपूर्ण उपन्यास है। उन्हें क्या पड़ी थी जो वह अपने गांव-परिवार को छोड़ ईसाइयों की बस्ती में पहुंच गए?(नई दुनिया,दिल्ली,12.9.2010)
आपका पोस्ट सराहनीय है. हिंदी दिवस की बधाई
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