पिछले दिनों अमेरिकी संरक्षणवाद की लहर उठी जब नवंबर में होने वाले चुनाव से पहले अमेरिकी राज्य ओहायो के गवर्नर टेड स्ट्रिकलैंड ने आउटसोर्सिंग पर प्रतिबंध लगाने संबंधी आदेश पर दस्तखत के बाद कहा कि नौकरियों की आउटसोर्सिंग ओहायो के मूल्यों से मेल नहीं खाती। उनका मानना है कि इस तरह की आउटसोर्सिंग से राज्य का व्यावसायिक माहौल बिगड़ने के कारण राज्य की आर्थिक विकास की उपेक्षा हो रही है। ज्ञातव्य है कि इससे पूर्व २००४ के बाद कैलीफोर्निया, फ्लोरिडा, हवाई इंडियाना, मेरीलैंड, मिसिसिपी, न्यूजर्सी और मिसोरी राज्यों ने आउटसोर्सिंग के खिलाफ राजनीतिक दबाव के कारण इसी प्रकार के कदम उठाए थे। ओहायो के गवर्नर का यह कदम ऐसे समय आया है जब एच-आई-बी और एल-१ श्रेणियों के तहत वीजा शुल्क बढ़ने से बड़ी संख्या में भारतीय कंपनियां आहत हुई थीं। संरक्षणवाद की इसी प्रकार की लहर पर सवार अमेरिकी सीनेट ने ८०० अरब डॉलर के प्रोत्साहन पैकेज में "अमेरिकन वस्तु खरीदो" की धारा के तहत सभी सार्वजनिक उपक्रमों के लिए अमेरिकी सामान और उपकरणों का उपयोग अनिवार्य कर दिया था। साथ ही, सरकार से राहत प्राप्त करने वाली कंपनियां विदेशी श्रमिकों को भी अपने यहां काम पर नहीं रखेंगी। इसी प्रकार के संरक्षणवादी प्रतिबंध यूरोप की सरकारों ने लगा दिए हैं ताकि घरेलू रोजगार और पूंजी बाहर नहीं जाने पाए।
असल में अमेरिका के राष्ट्रपति ओबामा ने अपने चुनावी अभियान के दौरान ही आउटसोर्सिंग के खिलाफ आलाप शुरू कर दिया था। राष्ट्रपति बनने के बाद उन्होंने आउटसोर्सिंग करने वाली कंपनियों पर दी जा रही कर की सुविधा समाप्त कर देने की घोषणा की थी जिसके तहत अमेरिकी कंपनियों के लिए यह बाध्यता निर्धारित की गई कि वे केवल अमेरिकी नागरिकों को ही रोजगार दें। जो कंपनियां भारत को आउटसोर्सिंग करेंगी उनसे प्राप्त कर की राशि उन अमेरिकन कंपनियों को दी जाएगी जो रोजगारवर्धक शोध और विकास करेंगी। भारत में अपने कार्यालय स्थापित करने की अमेरिकी कंपनियों की बढ़ती प्रवृत्ति देखकर अमेरिकी श्रम संघ और वामपंथी संगठन भी मुखर हो उठे हैं। आउटसोर्सिंग के विरोध में तर्क है कि "कर तो स्थानीय जनता से लेते हैं लेकिन रोजगार के अवसर विदेशी लोगों को देते हैं।" उल्लेखनीय है कि हमारे यहां की सूचना प्रौद्योगिकी कंपनियों का ६० प्रतिशत कारोबार अमेरिका के साथ होता है लेकिन ओहायो राज्य के सरकारी उपक्रमों का ५ प्रतिशत आउटसोर्सिंग का काम भारत से होता है। दिलचस्प बात तो यह है कि आउटसोर्सिंग की मुखालफत के बीच वैश्विक शोध संस्थान (ग्लोबल रिसर्च एजेंसी) की रिपोर्ट को भुला दिया गया। रिपोर्ट के अनुसार २०१० में यूरोप में ५३ प्रतिशत कंपनियां एशिया के साथ आउटसोर्सिंग करना चाहती हैं। ऐसी कंपनियों की संख्या निरंतर बढ़ती जा रही है जो सूचना प्रौद्योगिकी बजट में ५० प्रतिशत से अधिक भाग आउटसोर्सिंग सेवा पर खर्च करना चाहती हैं।
दूसरी ओर ओबामा की राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के सहअध्यक्ष गुरुराज देशपांडे ने आउटसोर्सिंग का पक्ष लेते हुए कहा है कि आउटसोर्सिंग के माध्मम से अमेरिका और यूरोप की कंपनियां भारत और चीन में उपलब्ध प्रतिभा का लाभ उठाकर अपनी उत्पादन लागत कम कर रही हैं। उनके अनुसार वे भारतीय कंपनियों से सेवा लेकर दान नहीं दे रहीं बल्कि वे कंपनी से वास्तविक "मूल्य" खरीदी कर रही हैं। उनके कहने का अर्थ यह है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था आज नवप्रवर्तन के दौर से गुजर रही है। यह कार्य पूंजीपति नहीं बल्कि उद्यमी करते हैं। विश्व की अर्थव्यवस्था तो केवल नए आविष्कार का प्रयोग करती है। इसलिए अमेरिका को संक्षरणवाद नहीं बल्कि नवप्रवर्तनवादी विचारधारा का नेतृत्व करना चाहिए।
इसी संदर्भ में विश्वविख्यात प्रौद्योगिकी कंपनियों जैसे आईबीएम, इंटेल, मोटोरोला, हैवेलेट पेकर्ड और डेल ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि आउटसोर्सिंग पर बवाल करने से अच्छा है कि अमेरिकी औद्योगिक और व्यावसायिक रणनीतिकार इस बात पर ध्यान दें कि यहां शिक्षा और प्रतिस्पर्धा का बेहतर माहौल किस तरह बनाया जा सकता है ताकि अमेरिकी रोजगार के अवसर दूसरे देशों में स्थानांतरित करने की नौबत ही नहीं आए। रिपोर्ट में कहा गया है कि आउटसोर्सिंग विश्व बाजार की प्रतिस्पर्धा के चेहरे को स्पष्ट करता है। रिपोर्ट तैयार करने वालों ने अमेरिकी आर्थिक नीति के निर्माताओं से कहा है कि वे यहां रोजगार सुरक्षा के साथ-साथ इस बात पर भी ध्यान दें कि अर्थव्यवस्था को आउटसोर्सिंग जैसी स्थितियों को समस्या के तौर पर न लेना पड़े।
दिलचस्प बात यह है कि अमेरिका के न तो मजदूर संगठनों और न ही सरकारी विभागों को मालूम है कि आउटसोर्सिंग की वास्तविक स्थिति क्या है और अब तक कितनी नौकरियां बाहर स्थानांतरित हुई हैं। न तो अमेरिकी श्रम विभाग, न वाणिज्य मंत्रालय और न ही अमेरिकी अर्थशास्त्रियों को आउटसोर्सिंग के तहत नौकरियों के स्थानांतरण का वास्तविक आंकड़ा मालूम है। ये विभाग आउटसोर्सिंग के परिदृश्य से पूरी तरह वाकिफ नहीं हैं। ऐसे में आउटसोर्सिंग के कारण रोजगार के जटिल होते संकट का समाधान ढूंढ़ने की दिशा में इन विभागों की ठोस पहल की गुंजाइश कम रह गई है। इन परस्पर विरोधी तर्कों के बीच बड़ी भारतीय आई.टी. कंपनियों ने बीच का मार्ग निकाल कर अपनी सहायक इकाइयों की स्थापना अमेरिका में ही की है। फिर भी वास्तविक स्थिति यह है कि अमेरिका में सूचना प्रौद्योगिकी कौशल की कमी और आयु औसत की वृद्धि से कुशल मानव संसाधन का अभाव आउटर्सोर्सिंग की दीर्घकालीन संभावनाएं बढ़एंगी।
आउटसोर्सिंग से जहां भारतीय अर्थव्यवस्था को मजबूती मिल रही है, वहीं गलाकाट प्रतियोगिता और व्यावसायीकरण के इस दौर में ब्रिटिश और अमरीकी कंपनियों की लागत में कमी आ रही है। आउटसोर्सिंग के मामले में अमरीकी कंपनियों के लिए भारत पसंदीदा गंतव्य स्थल बना जा रहा है लेकिन अब भारत की सूचना प्रौद्योगिकी से जुड़ी प्रमुख कंपनियां और अमरीकी बहुराष्ट्रीय कंपनियां मुखर विरोध के कारण गुप्त व्यावसायिक समझौते कर रही हैं। अमरीका को यह भलीभांति समझ लेना होगा कि आउटसोर्सिंग एक सतत् प्रक्रिया है और व्यावसायीकरण के युग में इसे रोका नहीं जा सकेगा । 21वीं सदी ज्ञान की सदी है जिसमें ज्ञान महत्वपूर्ण है और ज्ञान के बारे में वही ज्ञानदीप रोशनी करेगा जिसमें जान होगी। ऐसे समय में जबकि बहुपक्षीय वार्ताओं का दौर चल रहा है,अमरीका द्वारा सरकारी ठेकों को भारत समेत अन्य विकासशील देशों को न दिए जाने का कदम विश्व व्यापार संगठन के तहत किए गए निर्बाध व्यापार संबंधी करार के विपरीत होगा(नई दुनिया,दिल्ली,18.9.2010)।
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