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19 सितंबर 2010

महाराष्ट्रःफीस है या सजा

स्कूल की फीस कितनी हो और इसे कौन तय करे यह यक्ष प्रश्न महाराष्ट्र में सालों से बना हुआ है। हालांकि हाईकोर्ट कहता है कि स्कूल मुनाफाखोरी नहीं कर सकते, लेकिन राज्य भर में जबरदस्त वसूली का खेल जारी है। सरकार हमेशा की तरह आंखें मूंदे है क्योंकि अधिकतर स्कूलों के रहनुमा खुद उसके बाहुबली हैं। तो क्या अभिभावक लुटने को अभिशप्त हैं? कंचन श्रीवास्तव की पड़तालः

बुधवार को पुणे के रोजरी स्कूल में फीस वृद्धि का विरोध कर रहे अभिभावकों की स्कूल मैनेजमेंट ने जमकर धुनाई की। मामला पुलिस तक पहुंचा और मैनेजर गिरफ्तार कर लिया गया। अप्रैल से लागू 'राइट टू एजुकेशन ऐक्ट' में बच्चे को स्कूल से न निकाले जाने का नियम है, लेकिन दो हफ्ते पहले नवी मुंबई के विश्वजोत स्कूल ने बढ़ाई गई फीस न भरने पर छह बच्चों को निष्कासित कर दिया। दो महीने पहले गोरेगांव के विबग्योर स्कूल ने भी एक छात्रा को निकालकर 'बदला भंजाया' क्योंकि अभिभावकों ने स्कूल में हो रही अनियमितताओं का विरोध करने की 'जुर्रत' की थी। स्कूल मैनेजमेंट बेखौफ होकर 'राज' कर रहे हैं। लेकिन अब अभिभावकों का आक्रोश जंगल की आग जैसे भड़क उठा है।

इस आग में झुलस रहे लोगों की तादाद लाखों में है। राज्य बोर्ड, सीबीएसई, आईसीएसई, आईबी, आईजीसीएसई हर बोर्ड के गैरअनुदानित स्कूल जमकर अवैध कमाई रहे हैं। क्लास में 70 बच्चे हों, 4,000 बच्चों के लिए चार टॉयलेट हों, लेकिन आपको 50 हजार रु सालाना की चपत लगनी तय है। इंटरनैशनल में यह रकम 12 लाख तक हो सकती है। फीस हर साल बढ़ाई सकती है और जितना मैनेजमेंट चाहे उतना। अगर चूं-चपड़ की तो मैनेजमेंट आपके बच्चे के साथ वो बर्ताव करेगा कि कोई और पेरेंट ऐसी हिमाकत न कर सके। यही डर 99 प्रतिशत अभिभावकों को खामोश कर देता है।

इसके पीछे डिमांड और सप्लाई का खेल भी है। अच्छे स्कूलों की भारी कमी है। समस्या इतनी विकराल है कि बच्चे के पैदा होने की खुशियां तक ठीक से मना नहीं पाए माता-पिता अच्छे स्कूल में प्रवेश में जुट जाते हैं। 'ए ग्रेडर स्कूल' में एडमिशन नहीं मिला तो नंबर आता है बी ग्रेड और अंतरराष्ट्रीय स्कूलों का। कानून कोई है नहीं, तो ये दोनों तरह के स्कूल दोनों हाथों से (एक लाख से पांच लाख रु सालाना) लूट रहे हैं। हालांकि स्कूलों को मुनाफा कमाने की इजाजत नहीं है, लेकिन वे समाजसेवा नहीं करते यह जगजाहिर है। पर सरकार इन सबसे आंखें मूंदे है। ऐसा क्यों है, इसे हम आगे की लाइनों में पढ़ेंगे।

कैसी-कैसी फीस
फीस नियमन के लिए भले कानून न हो, लेकिन बाकी जो कानून हैं उनका धज्जियां उड़ रही हैं। कैपिटेशन फी, बिल्डिंग फी आदि पर अदालत ने रोक लगा रखी है, लिहाजा ये नाम रसीद में भले न दिखें लेकिन सिक्युरिटी डिपॉजिट, एक्टिविटी और मिसलेनियस के नाम पर जेब बेतरह हलकी की जाएगी। यह रकम कुछ सौ से लेकर हजारों तक हो सकती है और ट्रस्ट के नाम पर भी जमा की जा सकती है। 5,000 बच्चों पर 25 कंप्यूटर हों तो भी हर एक से 2 हजार रु तक देने पड़ सकते हैं। स्पोर्ट्स, ड्रामा, पिकनिक, यहां तक कि इंश्योरेंस जैसे 'आविष्कारिक' मदों में भी उगाही हो रही है। सीट से दस गुना ज्यादा फॉर्म बेचे जाते हैं। ये फॉर्म 500 रु तक के हो सकते हैं। यूनिफॉर्म, बस्ते, बैग और किताबों में भी लूट का खेल जारी है।

जी आर पर जीआर
फीस के नियम तय करने के लिए बनी कुमुद बंसल कमिटी की विवादास्पद रिपोर्ट खारिज होने के बाद सरकार ने कोई कानून नहीं बनाया, लेकिन कई जीआर निकालकर अपनी चिंता का इजहार अवश्य किया। जिन दो जीआर पर बवाल मचा वे इसी साल 15 जुलाई और 24 अगस्त को निकाले गए। इनमें शुरुआत से ही ऐसा लूपहोल रखा गया था कि प्राइवेट स्कूल मैनेजमेंट फायदे में रहें। 15 जुलाई के जीआर में कहा गया कि फीस वृद्धि पीटीए और फिर डिप्टी डायरेक्टर ऑफ एजुकेशन की अगुवाईवाली कमिटी की अनुमति के बाद ही होगी। इसे गैरअनुदानित स्कूलों ने हाईकोर्ट में चुनौती दी और वे अंतत: जीते भी।

इसी बीच 24 अगस्त को पीटीए के निर्माण से जुड़ा एक और जीआर आया। इसमें पीटीए जनरल बॉडी मीटिंग में 50 प्रतिशत अभिभावक सदस्यों की मौजूदगी आवश्यक की गई लेकिन पीटीए में चेयरमैन, वाइस चेयरमैन और सेक्रेटरी तीनों महत्वपूर्ण पदों पर स्कृल का कब्जा निश्चित किया गया। इसमें पीटीए चुनाव का जिक्र भी नहीं था जिसकी मांग अरसे से अभिभावक संघ कर रहे हैं ताकि पीटीए पर मैनेजमेंट द्वारा ठूंसे गए प्रतिनिधियों की गुंजाइश न रहे (ज्यादातर स्कूलों में यही होता है)। इस बेतुके जीआर के जरिए स्कूलों को फायदा देने का प्रयास था।

तमिलनाडु और आंध्र में कानून तो महाराष्ट्र में क्यों नहीं
सरकार ने खुद अपनी किरकिरी की और इसका खामियाजा हाईकोर्ट में 15 जुलाई 2010 और 22 जुलाई 1999 की जीआर (जिसके नियमों का रेफरेंस 15 जुलाई के जीआर में था) के रद्द होने से भुगतना भी पड़ा। 1 सितंबर 2010 को दिए फैसले में अदालत ने कहा-''जीआर की कोई लीगल वैल्यू नहीं होती और यह भी कि सरकार नियम तय करने के अधिकार दूसरों (पीटीए और डिप्टी डायरेक्टर की समिति) को डेलिगेट नहीं कर सकती। वह 'चाहे' तो स्वयं कानून बनाकर फीस का नियमन कर सकती है।'' अब गेंद सरकार के पाले में है लेकिन वह 'चाहेगी' तभी खेलेगी।

इस बीच दूसरे राज्य हमसे आगे निकल चुके हैं। तमिलनाडु में प्रिप्राइमरी के लिए छह हजार, प्राइमरी के लिए नौ हजार और सेकेंडरी के लिए 11 हजार सालाना फीस की सीलिंग तय है। आंध्र में सेकेंडरी स्कूल के लिए फीस की सीमा 24 हजार रु है। दिल्ली में भी फीस ऐक्ट लागू है। जबकि हमारी सरकार निर्लिप्त है और लाचार भी। लाचार इसलिए कि राज्य बुरी तरह एजुकेशन माफियाओं के चंगुल में है। यही वजह है कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा हर स्कूल में पीटीए होना अनिवार्य किए जाने के बावजूद राज्य के 80 प्रतिशत से अधिक स्कूल में आज भी पीटीए नहीं है।

एजुकेशन माफिया बनाम बाहुबली राजनेता
महाराष्ट्र में तकरीबन सभी बड़े संस्थान राजनेताओं के हैं। एनसीपी सुप्रीमो और केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार का विद्या प्रतिष्ठान 20 स्कूल चलाता है। पुणे, मुंबई, नवी मुंबई में तीन इंटरनैशनल स्कूलों के बाद इसके विस्तार की तैयारी है। एनसीपी के ही उपमुख्यमंत्री छगन भुजबल द्वारा 1989 में स्थापित मुंबई एजुकेशन ट्रस्ट इस समय सालाना तीस हजार बच्चों को प्रवेश दे रहा है। पतंगराव कदम भारतीय विद्यापीठ के जरिए 180 शैक्षिक संस्थाएं चला रहे हैं। इसका सालाना टर्नओवर 20 हजार छात्रों का है। त्रिपुरा के राज्यपाल और सीनियर कांग्रेसी डीवाई पाटील यूनिवर्सिटी, इंजिनियरिंग और मेडिकल से लेकर इंटरनैशनल स्कूल तक 120 संस्थाएं चलाते हैं। एक अन्य कांग्रेसी दिग्गज बालासाहेब विखे पाटील की प्रवारा कोऑपरेटिव संस्था के कई स्कूल हैं।

साफ है कि सरकार अब तक क्यों कानून बनाने से हिचकती रही है। लेकिन अब अभिभावकों का धैर्य चुक रहा है। मैनेजमेंट और अभिभावकों के बीच का संघर्ष मारपीट और कोर्ट-पुलिस तक पहुंच चुका है। दुखद तो यह कि इस आंदोलन में बच्चे भी शामिल हो चुके हैं। वे गणपति पंडालों में पथ-नाटक कर रहे हैं और स्कूल बंद करवाने जा रहे हैं। लेकिन लाख टके का सवाल यह है कि क्या सरकार अपने बाहुबलियों के खिलाफ कोई कदम उठाएगी?(नवभारत टाइम्स,मुंबई,19.9.2010)

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