घोषित तौर पर कृषि क्षेत्र सरकार के एजेंडा में भले ही सबसे ऊपर हो लेकिन इस क्षेत्र में वैज्ञानिकों की जबर्दस्त कमी कुछ और ही कहानी बयान कर रही है । कृषि क्षेत्र के प्रति सरकार की उदासीनता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) के विभिन्न संस्थानों में कृषि वैज्ञानिकों के करीब ३८ फीसदी अर्थात २,५०० पद खाली हैं । इस वजह से कृषि क्षेत्र के तमाम प्रोजेक्ट रुके पड़े हैं । कई प्रोजेक्टों पर काम बीच में ही रुक गया है ।
दरअसल, अनुसंधान व विकास (आर एंड डी) पर भारत द्वारा कम खर्च किया जाना इसमें मुख्य बाधा है । भारत में आर एंड डी पर कुल खर्च कभी भी जीडीपी के एक फीसदी को पार नहीं कर पाया । दूसरी ओर भारत जैसी परिस्थितियों वाले चीन में यह खर्च तीन गुना अधिक है । चीन का इरादा २०२५ तक आर एंड डी पर जीडीपी का चार फीसदी खर्च करने की है, लिहाजा यह खाई अभी और चौड़ी होगी । उदारीकरण के दौर में अन्य क्षेत्रों की भांति देश के बीज बाजार का भी व्यवसायीकरण हुआ है । अकेले हाईब्रिड बीज का बाजार ७,५०० करोड़ रुपए सालाना तक पहुंच गया है । भले ही जीएम तकनीक के उपयोग को लेकर विवाद हो लेकिन हाईब्रिड को उत्पादकता बढ़ाने का एक बेहतर उपाय माना गया है ।
यही कारण है कि देश का हाईब्रिड बीज का बाजार १५ से २० फीसदी सालाना की दर से बढ़ रहा है । इस समय मक्का, चावल, ज्वार, बाजरा और अधिकांश सब्जियों के हाईब्रिड बीज बाजार में आ चुके हैं । ये कम समय और कम पानी में अधिक उपज दे रहे हैं । लेकिन सार्वजनिक शोध-तंत्र की निष्क्रियता के चलते निजी क्षेत्र व बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपने हाईब्रिड बीज बेचकर मोटा मुनाफा बटोर रही हैं । फिर सार्वजनिक क्षेत्र के कृषि वैज्ञानिकों का खेत से जुड़ाव घटने के कारण प्रयोगशाला से निकली उपलब्धियों का एक-तिहाई ही किसानों तक पहुंच पाता है । दलहन, तिलहन क्षेत्र में भारत के लगातार पिछड़ने का सबसे बड़ा कारण यही है । एक ओर मिट्टी व पानी की गुणवत्ता में कमी आ रही है तो दूसरी ओर बढ़ती आबादी व क्रय क्षमता के चलते कृषि उपजों की मांग में निरंतर वृद्धि हो रही है ।
इसे देखते हुए सभी को अनाज व सब्जी उपलब्ध कराना एक चुनौतीपूर्ण काम है । एक सौ बीस करोड़ की आबादी वाला भारत आयात के जरिए यह लक्ष्य हासिल नहीं कर सकता । ऐसे में बहुराष्ट्रीय बीज कंपनियों पर निर्भरता देश की खाद्य सुरक्षा के लिए घातक होगी ।
इस संबंध में सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि सार्वजनिक क्षेत्र का कृषि-शोध तंत्र बहुराष्ट्रीय बीज कंपनियों के अनुदान पर निर्भर होता जा रहा रहा है । यही कारण है कि ये संस्थान किसानों की जरूरतों के बजाय बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा चिह्नित फसलों पर अनुसंधान कर रहे हैं । इस प्रकार सार्वजनिक क्षेत्र का दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा कृषि शोध-तंत्र बहुराष्ट्रीय एग्रीबिजनेस कंपनियों के आउटसोर्सिंग केंद्र के रूप में तब्दील होता जा रहा है । पहली हरित क्रांति की सफलता का आगाज करने वाले कृषि शोध-तंत्रों की यह दुर्दशा दूसरी हरित क्रांति लाने में जुटी सरकार की राह में कांटा बन सकती है (रमेश कुमार दुबे,नई दुनिया,दिल्ली,4.9.2010)।
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