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20 सितंबर 2010

हिंदी से प्रेम है तो बोलियों को बचाएं

यूनेस्को ने खतरे की स्थिति वाली भाषाओं की जानकारी तथा उनको बचाने के उद्देश्य से भाषा वैज्ञानिकों की मदद से एक ‘इंटरेक्टिव एटलस’ का निर्माण किया है। इसमें खतरे की स्थिति वाली भाषाओं को पांच श्रेणियों में बांटा गया है- असुरक्षित, निश्चिततया खतरे में, लगातार खतरे में, गंभीर खतरे में तथा हाल ही में विलुप्त। मानचित्रावली के नए संस्करण के मुताबिक दुनिया में मौजूद 6000 भाषाओं में से लगभग 2500 उपयरुक्त श्रेणियों में आती हैं। इस मानचित्रावली के मुताबिक भारत की 82 भाषाएं असुरक्षित हैं, 62 निश्चिततया खतरे में हैं, छह लगातार खतरे में हैं, 41 गंभीर खतरे में हैं और पांच हाल ही में विलुप्त हुई हैं।

यह हिंदी सप्ताह, हिंदी पखवाड़ा आदि मनाने का समय चल रहा है। हिंदी की गोष्ठियों में अक्सर हिंदी पर गंभीर खतरे का जिक्र होता है। यह समस्या अधिकांश ‘हिंदीप्रेमियों’ की है कि वे हिंदी के संरक्षण की बहुत बात करते हैं, लेकिन उत्तर भारत तथा ‘हिंदी क्षेत्र’ की अन्य भाषाओं और बोलियों को भूल जाते हैं, जो वास्तव में खतरे की स्थिति में हैं। एक खास राजनीति के तहत आधुनिक काल से पूर्व के ब्रज, अवधी आदि के कवियों को हिंदी कवि कहा जाता है लेकिन आधुनिक काल के ब्रज, अवधी आदि के कवियों को हिंदी साहित्य में कोई स्थान नहीं दिया जाता।

शिवदान सिंह चौहान अपनी पुस्तक ‘हिंदी साहित्य के अस्सी वर्ष’ में इस बात को उठा चुके हैं। अगर कहीं बोलियों के सवाल उठाए जाते हैं तो उसे ‘बोलियों की राजनीति’ कहकर खारिज करने की कोशिश होती है। फ्रेंचेस्का ओरसिनी की मदद से हम कह सकते हैं कि एकमतपसंद लोगों के वर्चस्व से निर्मित हुए हिंदी के सामंती चरित्र की वजह से ऐसा हो रहा है। चूंकि हिंदी में एक बड़ा खरीददार वर्ग है, इसलिए भूमंडलीकरण और बाजारवाद के इस जमाने में हिंदी को उतना खतरा नहीं है। असली खतरा हमारी जनपदीय भाषाओं और बोलियों को है। यह खतरा अंग्रेजी से तो है ही, स्वयं हिंदी से भी है। हम में से अधिकांश लोग अपनी बोलियों को छोड़कर अंग्रेजी नहीं अपना रहे, हिंदी अपना रहे हैं। इस तरह धीरे-धीरे अपनी बोली के शब्द-भंडार को भूलते चले जा रहे हैं। दस-बीस सालों में इन जनपदीय भाषाओं को बोलने वाले बहुत कम लोग रह जाएंगे जिससे हमारी मौलिक ज्ञान परंपरा और स्मृति भी खत्म हो जाएगी।

आज जहां एक तरफ अंग्रेजी हमारी अवांछित आवश्यकता बनती जा रही है, वहीं दूसरी तरफ दुनिया भर के शिक्षा-मनोविज्ञानी मातृभाषाओं में शिक्षा की वकालत कर रहे हैं। सरकार की जनविरोधी नीतियों की वजह से देश में बेरोजगारों की एक बड़ी फौज तैयार हो चुकी है। सरकार बेरोजगारी के मूल मुद्दे से लोगों का ध्यान भटकाने के लिए इसके लिए बेरोजगार युवाओं के अंग्रेजी में निपुण न होने को कारण के रूप में पेश कर रही है। फलस्वरूप पिछले दिनों गठित ‘राष्ट्रीय ज्ञान आयोग’ की सिफारिश है- ‘स्कूल में पहली कक्षा से बच्चे की पहली भाषा (मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा) के साथ अंग्रेजी भाषा की पढ़ाई शुरू की जानी चाहिए.. अंग्रेजी का उपयोग स्कूल में किसी गैर-भाषाई विषय को पढ़ाने के लिए भी किया जाना चाहिए.. परीक्षा में बच्चों की क्षमता का आकलन भाषा में उनकी निपुणता के आधार पर होना चाहिए।’ अधिकांश राज्य सरकारें इन सिफारिशों को लागू कर चुकी हैं, कुछ लागू करने की प्रक्रिया में हैं। इसके परिणाम हमारे सामने हैं।


अधिकांश मां-बाप अनपढ़ हैं या सिर्फ अपनी क्षेत्रीय भाषा से परिचित हैं। बच्चे मां-बाप से पढ़ाई संबंधी जिज्ञासा नहीं जाहिर कर सकते और मां-बाप चाहकर भी बच्चों की मदद नहीं कर सकते। फिर ट्यूशन का ही रास्ता बचता है। गरीब मां-बाप के लिए अंग्रेजी माध्यम और ट्यूशन के गणित का मतलब ‘ज्ञान आयोग’ की समझ से बाहर है। यह भी दिलचस्प है कि ऐसे बच्चे तथाकथित भाषाज्ञान में भी निपुण नहीं हो पाते- न तो अंग्रेजी में और न ही अपनी मातृभाषा में। मातृभाषा छोड़कर अंग्रेजी माध्यम में पढ़े अधिकांश बच्चे बौद्धिक गुलामी का शिकार हो बहुराष्ट्रीय कंपनियों के एजेंट बन जाते हैं।

हिंदी-अंग्रेजी सहित हम जितनी अधिक भारतीय और विदेशी भाषाओं को सीखें, उतना अच्छा है, लेकिन याद रहे, अपनी मातृभाषा को भूलने की कीमत पर नहीं। हमारा संबंध चाहे जिस भी विषय या क्षेत्र से हो, हम मौलिक और नया अपनी भाषा में ही कर सकते हैं। इसलिए आज जरूरत है हमारी मातृभाषाओं को बचाने की। हिंदी को बाजार का आश्रय मिल चुका है, इसलिए उसके सामने उतना बड़ा खतरा नहीं जबकि हमारी मातृभाषाओं के समक्ष अस्तित्व का संकट है। अगर हम अपनी मातृभाषाओं, जो कि छोटी-छोटी बोलियां हैं, को बचाते हैं तो हिंदी अपने आप बची रहेगी, क्योंकि हिंदी उन्हीं बोलियों से स्वयं को समृद्ध करती है। और तब ही हम अंग्रेजी के वर्चस्व का सामना ज्यादा आत्मविश्वास और हिम्मत के साथ कर पाएंगे(गंगा सहाय मीणा,दैनिक भास्कर,20.9.2010)।

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