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14 सितंबर 2010

जिन्होंने दी हिन्दी को ऊंचाई

हम हिन्दी बोलते हैं और हिन्दी में सोचते हैं। हिन्दी रोजगार, मान-सम्मान और संतुष्टि तीनों की भाषा है। बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं, जो हिन्दी के बल पर अपनी पहचान बना रहे हैं और हिन्दी को नई ऊंचाइयां दे रहे हैं। जानें कुछ ऐसे ही लोगों को-

हिन्दी की बदौलत आटोग्राफ देने लायक बना
प्रसून जोशी, एड गुरु और गीतकार
‘मुझसे कोई जब कोई ऑटोग्राफ देने के लिए कहता है तो मेरे मन में हिन्दी को लेकर कृतज्ञता का भाव पैदा होने लगता है। दरअसल, इसी की बदौलत तो मुझे अपनी प्रतिभा को दिखाने का अवसर मिला, इसी ने मुझे ख्याति दिलाई एड और फिल्म जैसे बेहद प्रतिस्पर्धी क्षेत्रों में।’ एड गुरु और मैक्नन एंड एरिक्सन एड एजेंसी के कार्यकारी चेयरमैन प्रसून जब अपने मित्रों और करीबियों के बीच बैठकर गप करते हैं, तो इस बात को पूरी ईमानदारी के साथ स्वीकार करते हैं।

गाजियाबाद के आईएमटी से एमबीए करके नौकरी तलाश करने के लिए निकले तो उनका सामने वही यक्ष सवाल खड़ा था कि अब आगे क्या? प्रसून ने ए एंड एम के क्लाइंट सर्विस विभाग में नौकरी का श्रीगणेश किया, पर चूंकि मूल रुझान तो लिखने-पढ़ने की तरफ था तो वे छटपटाने लगे। कोशिशें शुरू हो गई कि किसी तरह से कॉपी राइटिंग का काम करने का मौका मिल जाए।

एक बार उनके बॉस पीयूष जी दिल्ली ऑफिस आए तो अनौपचारिक बातचीत के दौरान उन्होंने कॉपी राइटिंग विभाग में शिफ्ट करने का आग्रह किया। उन्होंने चंदेक सवाल किए। बस बात बन गई। एक से बढ़कर एक विज्ञापनों की लाइनें लिखनी चालू कर दीं। उन्हें बड़ी सफलता और पहचान दिलाई ठंडा मतलब कोका कोला के एड ने। उसके बाद एड और फिल्मों में गीत और संवाद लिखने का दौर चालू हो गया। प्रसून कहने लगे, ‘मेरी तो जीवन की कहानी में रंग भरने का काम हिन्दी ने ही किया। इसी ने मुझे इस मुकाम पर पहुचाया कि मेरे जैसे एवरेज इंसान से लोग आटोग्राफ मांगते हैं।’

कौन कहता है रोटी की भाषा नहीं है हिन्दी
जयदेव सिंह, प्रख्यात हिन्दी कमेंट्रेटर
पंजाबी भाषी पर नाम-सम्मान हिन्दी की बदौलत कमाने वाले मशहूर खेल कमेंटेटेर और लेखक जसदेव सिंह कहते हैं कि यदि उन्होंने गांधी जी की शव यात्रा को अपने घर पर रेडियो पर नहीं सुना होता तो वे हिन्दी कमेंटरी से नहीं जुड़ते। अगर कमेंटेरी की दुनिया से नहीं जुड़ते तो उन्हें वह मान-सम्मान नहीं मिलता जो आगे चलकर मिला।

हिन्दी कमेंटरी की बदौलत उन्होंने 9 ओलंपिक खेलों, 6 एशियाई खेलों और न जाने कितने क्रिकेट टेस्ट मैचों को कवर किया। ‘मुझे आज भी याद है जब मैं और मेरी माँ अपने जयपुर के घर में बैठकर गांधी जी की शव यात्रा की कमेंटरी को सुन रहे थे। कमेंटरी कर रहे थे रेडियो की दुनिया की महान शख्सियत मेल्विल डिमैलो। उन्होंने उन राष्ट्रीय शोक के क्षणों को जिस तरह से शब्दों से पिरोया था, उसका आपको दूसरा उदाहरण नहीं मिलेगा।
मैंने उसी दिन फैसला कर लिया कि मैं रेडियो कमेंटरी करूंगा। इसी में अपना करियर बनाऊंगा। मुझे संतोष है कि मेरा फैसला सही साबित हुआ।’ जसदेव सिंह ने वर्ष 1955 से लेकर 1989 तक रेडियो और दूरदर्शन के लिए काम किया। वे दूरदर्शन के 1989 में डिप्टी डायरेक्टर जनरल के पद से रिटायर हुए। वे रिटायर होने से 15 साल पहले वे आकाशवाणी और दूरदर्शन की खेल सेवा के प्रभारी थे। वे पूरे यकीन के साथ कहते है, हिन्दी आपको रोटी दे सकती है बशर्ते कि आप किसी खास क्षेत्र में महारत हासिल कर लें।’

हिन्दी कमेंटरी की बदौलत ओलंपिक आर्डर से सम्मानित किए जा चुके जसदेव सिंह कहते हैं कि हिन्दी भाषी हमेशा अपराधबोध की हालत में रहते हैं। उन्हें न मालूम क्यों लगता है कि उन्हें कोई नौकरी नहीं मिलेगी। उनका इसे पढ़ना व्यर्थ ही साबित होगा। अगर वे अपने ऊपर यकीन करें तो उन्हें अपेक्षित सफलता मिल सकती है।

अवाम की जुबान में हिन्दी लिखें-बोलें
पीयूष पांडे, एड गुरु और ओ एंड एम एड एजेंसी के अध्यक्ष

जरा याद कर लीजिए उस कालजयी गीत को जो राष्ट्रीय साक्षरता मिशन के लिए बना था, जिसके बोल थे - मिले सुर हमारा तुम्हारा..। उस अद्भुत गीत ने देश के अवाम के दिलों में स्थायी स्थान बना लिया था। उस गीत को लिखने से लेकर देश के सामने लाने वाले पीयूष पांडे ने एड की दुनिया के शिखर को भले ही छू लिया हो, पर अब भी उन्हें उन दिनों की यादें ताजा हैं, जब वे दिल्ली के सेंट स्टीफंस कालेज से अपनी डिग्री लेकर अपने शहर जयपुर के तिलक नगर लौटे थे।

उन दिनों को याद करते हुए पीयूष पांडे बताने लगे कि तब ही कॉलेज के मित्र और क्रिकेटर और अब कमेंटेटर अरुण लाल ने कहा, ‘गुरु, कलकत्ता आ जाओ। तुम्हारे लिए एक चाय कंपनी में नौकरी है।’ वे कलकत्ता चले गए। दो साल नौकरी की। फिर लगा कि कुछ और किया जाए हालांकि उस कंपनी में पैसा ठीक मिल रहा था। उस दौरान आर्थर एंड मैक्गिलवी एड एजेंसी में कलाइंट सर्विस विभाग में मुम्बई में नौकरी मिल गई।

‘मुम्बई जाने पर मेरी जिंदगी ही बदल गई। इसका श्रेय मैं हिन्दी को देता हूं। हिन्दी लिखने पढ़ने का घर में माहौल था। वहां जाकर मैंने भी कॉपी राइटिंग में हाथ आजमाने की इच्छा अपने सीनियर्स के सामने रखी। कुछ काम करके दिखाया। उन्हें काम पसंद आया तो मुझे कॉपी राइटिंग विभाग से जोड़ दिया गया। उसके बाद तो फिर कई काम किए जिन्हें सराहा गया।’

चल मेरी लूना, कैडबरी डेयरी, फेविकोल जैसे तमाम विज्ञापन को तैयार करने वाले पीयूष बड़ी ईमानदारी से यह मानते हैं कि अगर उन्हें हिन्दी लिखने की ठीकठाक समझ नहीं होती तो शायद विज्ञापन के संसार में सफलता नहीं मिलती, पर अगर आप हिन्दीभाषी हैं तो कम से कम अंग्रेजी को भी खूब लिखे-पढ़ें। अगर आप दो भाषाओं को जानेंगे तो जब मार्किट में आपकी संभावनाएं और बढ़ जाएंगी।

नाम, पैसा और संतुष्टि दे रही है हिन्दी
वी.के. मिश्र, लेखक
उत्तर प्रदेश के इटावा जिले से संबंध रखने वाले विनोद कुमार मिश्र फिलहाल सेंट्रल इलैक्ट्रॉनिक लिमिटेड, साहिबाबाद में चीफ मैनेजर के तौर पर काम कर रहे हैं, पर वह अपनी असली पहचान हिन्दी लेखक के तौर पर देखते हैं, जिसने उन्हें नाम और संतुष्टि दी, साथ में पैसा भी। आईआईटी, रुड़की से इलैक्ट्रॉनिक एंड कम्युनिकेशन से बीई करने वाले श्री मिश्र ने इग्नू से एमबीए की और अब वह मैनेजमेंट साइंस में पीएचडी भी कर रहे हैं।

पिछले 15 सालों से नियमित लेखन से जुड़े विनोद कुमार मिश्र अब तक 57 किताबें लिख चुके हैं, जिनमें से 54 किताबें हिन्दी में लिखी गई हैं। उनके पसंदीदा विषय है विज्ञान और प्रौद्योगिकी। विज्ञान के नए और लोकप्रिय विषयों पर किताबें लिखने के साथ मिश्र ने सचित्र विज्ञान और प्रौद्योगिकी पर एक वृहद विश्व कोष भी तैयार किया है।

उन्होंने अपनी लेखनी में शारीरिक अक्षमता को भी काफी जगह दी है और इसका कारण उनकी अपनी शारीरिक परेशानी रही है। बकौल विनोद, ‘विकलांग साहित्य के रूप में हिन्दी भाषा में काफी कम लिखा गया है, जबकि विकलांग लोगों की एक बड़ी संख्या ग्रामीण और पिछड़े परिवेश से संबंधित है, ऐसे में उन तक उनके लिए उपयोगी लेखन पहुंचाने के लिए सबसे अच्छा माध्यम मुझे हिन्दी भाषा लगी।’ उन्होंने विकलांग पात्रों को ध्यान में रखकर कथा-कहानी व पटकथा लेखन भी किया।

मेरे लिए पैसा उद्देश्य नहीं था, पर मेरे लेखन ने मेरी पहुंच को व्यापक बनाया। आज भी जब कोई विकलांग व्यक्ति या परिवार दूर-दराज के क्षेत्र से मेरी पुस्तकों को पढ़कर कोई जानकारी चाहता है या आभार व्यक्त करता है तो उससे अधिक संतुष्टि कोई नहीं दिखाई देती। बकौल विनोद, हिन्दी प्रकाशन जगत की कुछ खामियों के कारण हिन्दी में किताब लेखन में पूर्णकालिक और अच्छी कमाई वाला करियर बनाना फिलहाल सभी के लिए संभव नहीं है, पर हिन्दी का बाजार काफी विस्तृत हो गया है और इंटरनेट, विज्ञापन जगत से लेकर पत्र-पत्रिकाएं इतने अधिक विकल्प मौजूद हो गए है जिनमें लेखन करके अच्छी पैसा और प्रतिष्ठा कमाई जा सकती है।

समाज को बेहतर समझते हैं हिन्दी वाले
कमलदेव, निर्माण आईएएस कोचिंग संस्थान
‘मेरा मानना है कि प्रशासनिक सेवाओं में हिन्दी भाषा के माध्यम से बड़े पदों पर पहुंचने वाले अधिकारी ज्यादा बेहतर तरीके से समाज और स्थितियों के लिए काम कर सकते हैं। उनकी सोच और चिंतन भारतीय व्यवस्था के अधिक करीब होती है।’ बनारस के 33 वर्षीय कमलदेव वर्ष 2005 से प्रशासनिक सेवा के लिए प्रवेश परीक्षा की तैयारी हिन्दी विषय में करा रहे हैं।

कमलदेव बताते हैं, ‘मैंने दिल्ली यूनिवर्सिटी से मैथमेटिक्स विषय में बीएससी और एमएससी की पढ़ाई की। उसके बाद सिविल सेवा परीक्षाओं की तैयारी करने लगा। दो-तीन परीक्षाओं में चयन भी हुआ पर मनमुताबिक परिणाम नहीं होने के कारण उनमें आगे बढ़ने का विचार छोड़ दिया। शुरुआत में हिन्दी में कोचिंग शुरू करने में चुनौतियां अवश्य थी। पहली चुनौती अच्छी भाषा में स्टूडेंट्स को सामग्री उपलब्ध कराना था। पिछले कुछ समय में प्रशासनिक सेवाओं की परीक्षाओं में बड़े अधिकारियों का व्यवहार भी बदला हुआ देखने को मिला है।

वर्ष 2005 तक आईएएस परीक्षाओं में हिन्दी माध्यम से उत्तीर्ण होने वाले छात्रों का प्रतिशत लगभग 7 प्रतिशत के करीब होता था, पर अब यह संख्या लगभग 20 प्रतिशत तक पहुंच गई है। पहले की तुलना में अब इंटरव्यू पैनल द्वारा भी हिन्दी भाषी छात्रों को इंटरव्यू के दौरान सहजता से हिन्दी में बात करने के लिए प्रेरित किया जाता है। हिन्दी हमारी राजभाषा है, हम हिन्दी में सोचते हैं। सिविल परीक्षा में भी एक बिन्दु पर आपकी जानकारी से अधिक आपका विचार, अकादमिक और प्रशासनिक सोच मायने रखती है। ऐसे में हिन्दी में सोच-समझ रखने के कारण हम समाज पर स्थितियों के सामाजिक-आर्थिक प्रभावों का आकलन अधिक बेहतर तरीके से कर सकते हैं।’

सांसदों को सिखाई हिन्दी
डा. विश्वनाथ मिश्र, हिन्दी कोच

‘औद्योगीकरण का दौर चल रहा है। ऐसे में अमूमन इस बात को लेकर हमेशा असमंजस की स्थिति सी बनी रहती है कि अंग्रेजी भाषा का बाजार ज्यादा है कि हिन्दी का, लेकिन मेरा मानना है कि अगर वृहद तौर पर देखा जाए तो हिन्दी का बाजार अधिक बड़ा है। फिल्म इंडस्ट्री और मीडिया खासतौर पर हिन्दी की सबसे अधिक हिमायती है। जहां तक संसद और दूतावासों की बात है तो वहां हिन्दी का महत्व काफी बढ़ा है। आजादी के बाद के शुरुआती दौर में कई शिक्षक हमारे यहां से विदेशों को गए।

वर्तमान में टीवी चैनलों, विज्ञापनों में हिन्दी छाई है। जिसके दिमाग में अंग्रेजियत ज्यादा हावी होती है वह इसे हिंग्लिश का नाम दे देते हैं। मूलत: उसका आधार हिन्दी होता है। ऐसी भाषाओं के लघु अखबार भी निकलने लगे हैं। अगर आप उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, बिहार, हरियाणा जैसे राज्यों की बात करें तो यहां के न्यायालयों और दफ्तर की भाषा हिन्दी ही है। वहां आपको ऐसे लोग हजारों की संख्या में मिल जाएंगे जिन्होंने हिन्दी के बल पर अपनी पहचान बनाई है और लोगों को रोजगार दिलाया है। जिन फिल्मों में अंग्रेजी डालने की कोशिश की गई, वह चल नहीं सकीं।

बाजार की सबसे प्रमुख भाषा हिन्दी है, ऐसे में न तो मीडिया, न फिल्म और न ही विज्ञापन इसे आज तक नकार पाए। मेरे यहां कई अंतर्राष्ट्रीय कंपनियों के एग्जीक्यूटिव अंग्रेजी सीखने आते हैं। मैंने जापान राजदूत के इनेकी सांग को हिन्दी सिखाई। उन्होंने एक पब्लिक मीटिंग में कहा कि हिन्दी और जापानी एक भाषा है। हर एक हिन्दी भाषी को जापानी और जापानी को हिन्दी सीखनी चाहिए(प्रस्तुति: विवेक शुक्ला, अनुराग मिश्र, पूनम जैन,हिंदुस्तान,दिल्ली,13.9.2010)

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