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14 सितंबर 2010

विश्व फलक पर हिन्दीःअरविंद कुमार

हिंदी के उग्र समर्थक बेचैन हैं कि आज भी अंग्रेजी का प्रयोग सरकारी कामों और व्यवसाय के क्षेत्र में धड़ल्ले से किया जा रहा है। यह लोग चाहते हैं कि अंग्रेजी का प्रयोग तत्काल बंद करके हिंदी को सरकारी कामकाज की एकमात्र भाषा बना दिया जाए। हालांकि इनकी यह उतावली समझी जा सकती है, लेकिन यहां यह भी याद दिलाने की जरूरत है कि एक समय ऐसा भी था जब दक्षिण भारत के कुछ राज्य विशेषकर तमिलनाडु में हिंदी की ऐसी मांगों के प्रत्युत्तर में भारत से अलग होकर एक अलग देश बनाने की मांग शुरू हो गई थी। तब हिंदी वीरों का कहना था कि चाहे तो तमिलनाडु अलग हो जाए, लेकिन हमें हर हाल में हिंदी चाहिए। उस समय होने वाले संसदीय चुनावों के दौरान भी उन्होंने नारा लगाया कि वोट केवल उसी प्रत्याशी को दें जो हिंदी को तत्काल लागू करने के पक्ष में हो। सौभाग्य है कि भारत के लोग इतने नासमझ नहीं थे और न ही आज हैं कि देश की एकता की कीमत पर हिंदी को लागू करना चाहें। मैं समझता हूं कि पूरी राजनीतिक और भाषाई तैयारी के बिना हिंदी को सरकारी कामकाज की प्रथम भाषा बनाना लाभप्रद नहीं होगा। हिंदी पूरी तरह आने में देर लग सकती है पर प्रजातंत्र और राष्ट्रीय एकता के लिए यह देरी बरदाश्त की जा सकती है। इसके लिए हमें चाहिए कि तब तक हम अपनी भाषा को आधुनिक तौर पर संवारते रहें। अंग्रेजी भी आवश्यक यहां ध्यान रखने की जरूरत है कि अंग्रेजी के एकतरफा विरोध की नीति हमें अपने ही लोगों से दूर कर सकती है। आम आदमी अंग्रेजी सीखने पर आमादा है तो इसका एक कारण यह है कि आज आर्थिक और सामाजिक प्रगति के लिए अंग्रेजी का ज्ञान आवश्यक है। दूसरा यह कि संसार का सारा ज्ञान समेटने के लिए देश को अंग्रेजी में समर्थ बने रहना होगा वरना हम कूपमंडूक ही रह जाएंगे। यही कारण था कि 19वीं सदी में जब मैकाले की नीति के आधार पर अंग्रेजी शिक्षा का अभियान चला तो राजा राम मोहन राय जैसे देशभक्त और समाज सुधारकों ने उसका डटकर समर्थन किया था। वह देश को दकियानूसी मानसिकता से उबारना चाहते थे। राम मोहन राय ने कहा भी कि एक दिन अंग्रेजी पूरी तरह भारतीय बन जाएगी और हमारे बौद्धिक सामाजिक विकास का साधन भी। इस बारे में स्वामी विवेकानंद ने भी अमेरिका में भारतीय संस्कृति का बिगुल अंग्रेजी के माध्यम से ही फूंका। इसका अर्थ यह नहीं है कि आज हम लोग हिंदी का महत्व नहीं जानते या हिंदी की प्रगति और विकास रुक गया है अथवा रुक जाएगा। मैं समझता हूं कि हिंदी के विकास का राकेट आने वाले समय में एक नई ऊंचाई छुएगा। हिंदी अब रुकने वाली नहीं है और रुकेगी भी नहीं। कारण है हिंदी बोलने समझने वालों की भारी तादाद और उनके भीतर की उत्कट आकांक्षा। भाषा विकास के कार्य से जुड़े वैज्ञानिकों का कहना है कि आने वाले समय में अंतरराष्ट्रीय महत्व की जो चंद भाषाएं होंगी उनमें हिंदी अग्रणी होगी। यह अनुमान वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित होने से हिंदीप्रेमियों के लिए उत्साहवर्धक है। पूरी दुनिया में 60 करोड़ से अधिक लोग हिंदी लिखते-पढ़ते और बोलते हैं। फिजी, मारीशस, गयाना, सूरीनाम की अधिकांश और नेपाल की कुछ जनता हिंदी बोलती है। अमेरिकी, यूरोपीय महाद्वीप और आस्ट्रेलिया आदि देशों में गए हमारे तथाकथित अनिवासी भारतीय कमाई भले ही अंग्रेजी भाषा के बल पर हैं पर उनका भारतीय संस्कृति और हिंदी के प्रति प्रेम बढ़ा ही है। कई बार तो लगता है कि वे हिंदी के सबसे कट्टर और कामयाब समर्थक हैं। यदि हम भारत की बात करें तो पाते हैं कि हिंदी की हालत निराशाजनक नहीं, बल्कि अच्छी है। आम लोगों के समर्थन और हिंदीप्रेम के कारण ही पूरे भारत में 10 शीर्ष दैनिकों में हिंदी के पांच हैं, जो क्रमश: दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, हिंदुस्तान, अमर उजाला, राजस्थान पत्रिका हैं। इस दौड़ में अंग्रेजी भाषा में टाइम्स आफ इंडिया और मलयालम में मलयालम मनोरमा व मातृभूमि, मराठी भाषा में लोकमत, तमिल भाषा में एक अखबार नैनिक थंती शामिल है। इसी प्रकार सब से ज्यादा बिकने वाली पत्रिकाओं में हिंदी की पांच, तमिल की तीन और मलयालम की एक है। जबकि अंग्रेजी में केवल एक ही पत्रिका है। हिंदी के टीवी मनोरंजन चैनल न केवल भारत में, बल्कि बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफ गानिस्तान में भी लोकप्रिय हैं, जो हिंदी के साथ-साथ हमारे सामाजिक-सांस्कृतिक चिंतन का भी प्रसार कर रहे हैं। जहां तक हिंदी समाचार चैनलों का सवाल है तो अंग्रेजी के सर्वाधिक प्रतिष्ठित न्यूज वीकली इकोनॉमिस्ट में इंटरनेशनल ब्रॉडकास्टिंग पर लिखे लेख में कहा गया है कि अमेरिका और ब्रिटेन में विदेशी भाषाओं में समाचार प्रसारित करने वाले संस्थानोँ को अपना धन सोच समझकर बरबाद करना चाहिए। उदाहरण के लिए भारत की अपनी भाषाओं के न्यूज चैनलों से प्रतियोगिता करना कोई बुद्धिमानी नहीं है। इससे हिंदी की ग्लोबल मांग, लोकप्रियता और प्रभाव को समझा जा सकता है। बढ़ती तादाद है ताकत भविष्य में हिंदी का प्रयोग बढ़ने की एक और मुख्य वजह हमारी जनसंख्या में वृद्धि के अलावा और बड़ी आर्थिक शक्ति के रूप में भारत के उभरने की संभावना भी है। बहुत साल नहीं हुए जब हम अपनी विशाल आबादी को एक अभिशाप मानते थे। आज यह हमारी कार्यशक्ति मानी जाती है। भूतपूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने कहा भी कि अधिक आबादी अपने आप में कोई समस्या नहीं है, समस्या है उसकी जरूरतों को पूरा न कर पाना। अधिक आबादी का मतलब है अधिक सामान और उत्पाद की मांग। अगर लोगों के पास क्रय क्षमता है तो हर चीज की मांग बढ़ती है। आज हमारे समृद्ध मध्य वर्ग की संख्या अमेरिका की कुल आबादी जितनी है। पिछले दिनों विश्र्वव्यापी आर्थिक संकट को भारत हंसते-खेलते झेल गया तो उसकी वजह हमारे उद्योगों के उत्पाद की निर्यात की बजाय घरेलू मांग पर अधिक निर्भरता थी। हमारी अपनी खपत उन्हें ताकत देती है और बढ़ाती है। इसे हिंदी भाषियों की संख्या और विकसित देशों की जनसंख्या के अनुपात के साथ-साथ सामाजिक रुझानों द्वारा भी समझा जा सकता है। दुनिया की कुल आबादी आज लगभग चार अरब है। इसमें से हिंदुस्तान और चीन की संयुक्त भागीदारी 60 प्रतिशत है।। ्रपूरे यूरोप की आबादी 73.74 करोड़ है और उत्तर अमेरिका की आबादी 50 करोड़ के आसपास है। 2050 तक पूरे दुनिया की आबादी 9 अरब से ऊपर पहुंचने का अनुमान है। इसमें से यूरोप और अमेरिका जैसे विकसित देशों की एक बड़ी आबादी बूढ़ी होती जा रही है। इसका मतलब है कि इन देशों की कुल जनसंख्या में बूढे़ लोगों का अनुपात लगातार बढ़ेगा। चुनावी नारे के तौर पर अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा कुछ भी कहें, बुढ़ाती आबादी के कारण उन्हें अपने यहां या अपने लिए काम करने वालों को विवश होकर या मजबूरन बाहर के देशों से लोगों को आयात करना होगा अथवा अपना काम विदेशों में करवाना होगा। इस बारे में दुनिया की सबसे बड़ी सॉफ्टवेयर कंपनी इन्फोसिस के एक संस्थापक नीलेकणि की राय विचारणीय है कि किसी देश में युवाओं की संख्या जितनी ज्यादा होती है, उस देश में उतने ही अधिक काम करने वाले लोग होते हैं और उतने ही अधिक नए विचार पनपते हैं। हिंदी पट्टी से मिलेगी शक्ति भारत आज संसार में सब से अधिक युवा जनसंख्या वाला देश बन गया है। इसका फायदा हमें 2050 तक मिलता रहेगा। स्वयं भारत के भीतर किए गए जनसंख्या आकलन के आधार पर 2025 में हिंदी पट्टी की उम्र औसतन 26 वर्ष होगी और दक्षिण की 34 साल। अब आप भाषा के संदर्भ में इसका महत्व समझ सकते हैं। इन नौजवानों में से अधिकांश हिंदी पट्टी के छोटे शहरों और गांवों से होंगे। उनकी मानसिकता मुंबई, दिल्ली, गुड़गांव के लोगों से कुछ भिन्न होगी। उनके पास अपनी स्थानीय जीवन शैली और बोली होगी। नई पहल के चलते हमारे तीव्र विकास के नए रास्ते खुल रहे हैं। सबके लिए शिक्षा जैसे अभियान का परिणाम होगा असली भारत के लोग हमारे गांवों को सशक्त करके देश को आगे बढ़ाएंगे। आगे बढ़ने के लिए हिंदी वालों के लिए सबसे बड़ी जरूरत है अपने आप को नई तकनीकी दुनिया के सांचे में ढालना और सूचना प्रौद्योगिकी में समर्थ बनना। यही होगी हमारी नई दिशा, जिससे न केवल भारत में बल्कि पूरी दुनिया में हिंदी का बोलबाला बढ़ेगा। कंप्यूटर और इंटरनेट ने पिछले वर्षो में विश्र्व में सूचना क्रांति ला दी है। आज कोई भी भाषा कंप्यूटर तथा अन्य इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों से दूर रहकर पनप नहीं सकती। नई तकनीक में महारत किसी भी भाषा को सर्वोच्च शक्ति प्रदान करती है। इसमें हम पीछे हैं भी नहीं। भारत और हिंदी वाले इस क्षेत्र में अपना सिक्का जमा चुके हैं। इस समय हिंदी में वेबसाइटें, चिट्ठे, ई-मेल, चैट, एसएमएस आदि पर हिंदी की सामग्रियां उपलब्ध हैं। नित नए उपकरण आते जा रहे हैं। लोगों में इनके बारे में जानकारी देकर लोगों में जागरूकता पैदा करने की जरूरत है ताकि अधिकाधिक लोग कंप्यूटर पर हिंदी का प्रयोग करते हुए अपना, देश का, हिंदी का और समाज का विकास करें। हमें यह मानकर नहीं चलना चाहिए कि गांव का आदमी नई तकनीक अपनाना नहीं चाहता। ताजा आंकड़ों से यह बात सिद्ध होती है कि गांवों में रोजगार के नए-नए अवसर खुल रहे हैं। शहर अपना माल गांवों में बेचने को उतावला है। गांव अब ई-विलेज हो चला है। 13 प्रतिशत लोग इंटरनेट का उपयोग खेती की नई जानकारी जानने के लिए करते हैं। अनुमान है कि गांवों में इंटरनेट का इस्तेमाल करने वालों का आंकड़ा 54 लाख पर पहुंच जाएगा। इसी प्रकार मोबाइल फोन दूरदराज के इलाकों के लिए वरदान होकर आया है। उसने कामगारों और कारीगरों को दलालों से मुक्त कर दिया है। यह उनका चलता-फिरता दफ्तर बन गया है और शिक्षा का माध्यम भी। अकेले जुलाई 2010 में एक करोड़ सत्तर लाख नए मोबाइल ग्राहक बने और देश में मोबाइलों की कुल संख्या चौबीस करोड़ पहुंच गई। अब ऐसे फोनों का इस्तेमाल कृषि काल सेंटरों से नि:शुल्क जानकारी पाने के लिए, उपज के नवीनतम भाव जानने के लिए किए जाते हैं। यह जानकारी पाने वाले लोगों में हिंदी भाषी प्रमुख हैं। हिंदी वालों और गांवों की बढ़ती क्रयशक्ति का ही फल है जो टीवी संचालक कंपनियां अंग्रेजी की बजाया हिंदी कार्यक्रमों पर अपनी नैया खेना चाहती हैं। वह पूरी तरह भारतीय भाषाओं को समर्पित हैं। आप देखेंगे कि टीवी पर हिंदी के मनोरंजन कार्यक्रमों के पात्र अब ग्रामीण या कस्बाई होते जा रहे हैं। सरकारी कामकाज की बात करें तो पुणे में प्रख्यात सरकारी संस्थान सीडैक कंप्यूटर पर हिंदी प्रोग्राम विकसित करने में जुटा है। अनेक मंत्रालयों के अधिकारियों की सहायता के लिए मशीनी अनुवाद के उपकरण तैयार हो चुके हैं। सीडैक ने ऐसी विधि विकसित की है जिससे बोली गई हिंदी को लिपि में परिवर्तित करना संभव हो गया है(दैनिक जागरण,राष्ट्रीय संस्करण,14.9.2010 से साभार)।

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