पिछले दिनों संसद में जातिगत आधार पर जनगणना कराने को लेकर खूब गरमागरम बहस हुई। जनप्रतिनिधियों ने जातिगत आधार पर जनगणना के अनेक फायदे और नुकसान भी गिनाये। बावजूद इसके, संप्रग सरकार नहीं चाहती थी कि जातिगत आधार पर देश में जनगणना हो। पर विपक्षी दलों के दबाव में सरकार को जातिगत आधार पर जनगणना का फैसला लेना पड़ा। जातिगत जनगणना से समाज और राष्ट्र का कितना भला होगा यह तो वक्त बताएगा लेकिन एक बात आईने की तरह साफ है कि इससे कोई आमूल-चूल सामाजिक-आर्थिक बदलाव होने वाला नहीं है।
हां, राजनीतिज्ञों के लिए यह एक मुद्दा जरूर है। सम्भव है कि आने वाले दिनों में जातिगत जनगणना के बाद सियासी खेमेबन्दी भी तेज हो लेकिन यह ध्रुवीकरण जनता का कितना आर्थिक भला करेगा, कह पाना मुश्किल लग रहा है। ऐसा इसलिए कि आर्थिक शोध संस्थान के हवाले से जो खबर आयी है वह सियासतबाजों को चौंकाने वाली है। इस रपट के मुताबिक उच्च जाति व अनुसूचित जाति- जनजाति तथा अन्य पिछड़े वर्ग में आय विषमता का मूल कारण शिक्षा है न कि जाति समूह। यह रिपोर्ट उन सियासतबाजों को आईना दिखा सकती है जो जातियों की लामबन्दी के सहारे अपने उत्थान की जुगत भिड़ाते है और लोगों को आर्थिक तरक्की का भरोसा दिलाते है। आर्थिक शोध संस्थान ’नेशनल काउंसिल आफ एप्लॉयड इकोनॉमिक रिसर्च‘ के 2004-05 के आंकड़ों के अनुसार देश की कुल आबादी में 8 फीसद अनुसूचित जन जाति है और उनके हिस्से में राष्ट्रीय आय का सिर्फ 5.2 फीसद हिस्सा ही पहुंच पाता है। इसी तरह देश की कुल आबादी में अनुसूचित जाति की भागीदारी 16.8 फीसद है जबकि देश की कुल राष्ट्रीय आय में इनकी हिस्सेदारी महज 11.8 फीसद है। इसी प्रकार 41 फीसद आबादी वाले ओबीसी की हिस्सेदारी राष्ट्रीय आय में 37.7 फीसद है। गौरतलब बात यह है कि देश में उच्च जाति की आबादी सिर्फ 34.1 फीसद है जबकि राष्ट्रीय आय में से 45.4 फीसद हिस्सा उनके पास जाता है।
आमतौर पर यह प्रश्न उठता है कि आखिर ऐसा क्यों? रिपोर्ट में इसका मूल कारण शिक्षा और शहरीकरण को बताया गया है। अगर आमदनी के स्तर पर भी सरसरी निगाह डाली जाये तो देश में अनुसूचित जनजाति परिवार की औसत आय 40,753 रुपये सालाना है। उच्च जाति की आय इसकी दोगुनी 86,690 रुपये वाषिर्क है। सवाल उठता है कि ऐसा क्यों? इसका भी कारण शिक्षा और शहरीकरण से ही जुड़ा हुआ है। प्रश्न यह है कि इस आर्थिक असमानता के पीछे की सचाई क्या है और इस चौड़ी होती खाई को कैसे पाटा जा सकता है? क्या इसके लिए एकमात्र रास्ता आरक्षण है?
यदि सचमुच आरक्षण ही आर्थिक असमानता को दूर करने का मूलमंत्र होता तो इन 63 सालों में यह जरूर दूर हो गयी होती लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो सका। मतलब यह कि अभी तक जो लोग सामाजिक-आर्थिक समानता लाने के लिए सिर्फ आरक्षण के रास्ते को ही बेहतर समझते थे, वे कहीं न कहीं आज गलत सिद्ध हो रहे है। इसका मतलब यह भी होता है कि जो लोग विभिन्न जाति समूह में आय अन्तर के आधार पर आरक्षण को जारी रखने की आवाज बुलन्द कर रहे है, वे भी या तो मुगालते में है अथवा उनकी मंशा सिर्फ इंकलाब से राजनीतिक फायदा उठाना है। यदि सचमुच वे आर्थिक समानता स्थापित करने के पैरोकार है तो उन्हें अब अपनी सोच बदलनी होगी। उन्हें आरक्षण के साथ-साथ उन मसलों पर भी अपना माथा खपाना होगा जो वाकई आर्थिक असमानता के लिए जिम्मेदार है।
सच तो यह है कि देश में सामाजिक-आर्थिक असमानता जैसे सवालों को जातिसमूहों के भंवर में फंसा कर रख दिया गया है। यह मान लिया गया है कि आर्थिक विषमता दूर करने का एकमात्र उपाय जातियों की लामबन्दी ही है। यही कारण है कि आज के आधुनिक बनते समाज में जातियों को बहुत खूबसूरती से जिन्दा रखा गया है। आज गांवों में कैद जातियां और दूसरी तरफ शहरों की खुली जिन्दगी ने देश को दो भागों में विभक्त कर दिया है। शहरों की आधुनिक शिक्षा और पसन्द के व्यवसाय ने न केवल जातिगत मानकों को तोड़ा है बल्कि आर्थिक स्तर पर भी नये आर्थिक समूह की संरचना की है। इस समूह में न तो कोई जातिगत भेद है, न ही अलगाव।
तरक्की के लिहाज से सब एक दूसरे के पूरक बने हुए है। गांव और शहरों के बीच जरूरत के लिहाज से बुनियादी संसाधनों के अन्तर ने आर्थिक असमानता की एक नयी परिभाषा गढ़ डाली है। यही कारण है कि आज ग्रामीण क्षेत्रों में प्रति व्यक्ति औसत आय 51,922 रुपये सालाना है, वहीं छोटे शहरों में 80,217 रुपये सालाना है। रही बात बड़े शहरों में रहने वालों की तो उनकी आय सालाना 1,15,253 रुपये है। इस अन्तर का मूल कारण ग्रामीण और शहरों के संसाधनों में जमीन आसमान का अन्तर और शिक्षा प्रणाली में आमूल-चूल विभेद है।
आज अनुसूचित जाति और जनजाति के लोग आर्थिक स्तर पर हाशिये पर क्यों खड़े है इसके पीछे का कारण कहीं न कहीं उनका अधिकाधिक संख्या में गांवों की जकड़बन्दी से बाहर न निकलना ही है। गांवों के सीमित दायरे ने उनके विकास के विकल्पों को भी सीमित कर दिया है। सचाई यह है कि आज भी 89.9 फीसद अनुसूचित जनजातियां ग्रामीण इलाके में ही रहती है। इन गांवों में शिक्षा व विकास की बुनियादी जरूरतें कितनी पूरी हो रही है आसानी से समझा जा सकता है। वहीं समय की नजाकत को भांपते हुए आज 58.8 फीसद उच्च जातियां ग्रामीण क्षेत्रों से पलायित कर शहरों में जा बसी है और तेज गति से हो रहे परिवर्तन के साथ कदमताल करती देखी जा रही हैं। ऐसे में स्वाभाविक है कि उच्च जातियां अन्य जातियों की अपेक्षा विकास की रफ्तार में आगे रहेगीं ही(अरविन्द जयतिलक,राष्ट्रीय सहारा,20.9.2010)।
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