हिंदी के माथे पर वैश्विक गौरव की बिंदी सज नहीं पा रही है। दुनिया में तीसरी सबसे ज्यादा बोली जाने वाली इस भाषा को संयुक्त राष्ट्र की भाषा बनाने का मंसूबा खर्च की फिक्र में अटका हुआ है। विश्व की सबसे बड़ी पंचायत में हिंदी को जगह दिलाने की कोशिशों में भारत को न तो 97 दोस्त मिल सके हैं और न ही वह उनसे आर्थिक सहायता का भरोसा हासिल कर सका है। हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की भाषा का दर्जा दिलाने के लिए भारत की ओर से सालाना 14 मिलियन डॉलर (करीब 66 करोड़ रुपये) खर्च करने होंगे। इस खर्च को लेकर विदेश नीति का प्रबंध संभालने वाला अंग्रेजीदां तंत्र अब तक खुद को तैयार नहीं कर पाया है। हालांकि, बरसों से टिमटिमा रही इस आस पर भारत ने संयुक्त राष्ट्र के 192 देशों को टटोला था, लेकिन कोई उत्साहजनक जवाब नहीं मिला। संसद के मानसून सत्र में विदेश मंत्री एस.एम. कृष्णा ने इस बात को सदन में स्वीकार किया कि मौजूदा आर्थिक हालात में ज्यादातर सदस्य राष्ट्र संयुक्त राष्ट्र को दिए जाने वाले अंशदान में बढ़ोतरी के हक में नहीं हैं। वैसे, हिंदी को लेकर विदेश मंत्रालय के उत्साह का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि विदेश मंत्री कृष्णा के कुर्सी संभालने के बाद से हिंदी सलाहकार समिति का गठन तक नहीं हो पाया है। मंत्रालय की पिछली हिंदी सलाहकार समिति की सदस्य डॉ. अरुणा मुकिम कहती हैं कि प्रयासों में कुछ अड़चनें जरूर है, लेकिन कोशिशें देर-सबेर रंग जरूर लाएंगीं। उल्लेखनीय है कि सरकार अब हिंदी की वकालत के लिए दुनिया भर में बिखरे अप्रवासी भारतीयों से मदद जुटाने का विचार कर रही है। संयुक्त राष्ट्र में आधिकारिक भाषा का दर्जा केवल अंग्रेजी, अरब, चीनी, फ्रेंच, रूसी और स्पेनिश को हासिल है। यदि भारत का प्रस्ताव परवान चढ़ता है तो उसे कर्मचारियों, साजो-सामान के निरंतर व्यय के अलावा सभी दस्तावेज के अनुवाद का भी भारी-भरकम खर्च उठाना होगा। इस समय संयुक्त राष्ट्र में हिंदी की मौजूदगी केवल इतनी है कि संयुक्त राष्ट्र रेडियो वेबसाइट पर हिंदी का एक कार्यक्रम पेश किया जाता है। हिंदी की राह में एक बड़ी अड़चन यह भी है कि सूरीनाम, त्रिनिदाद-टोबैगो, नेपाल, मॉरीशस, फिजी जैसे मुल्कों में, जहां हिंदी समझी और कुछ हद तक बोली जाती है, उनमें से किसी की न तो माली हालत बेहतर है और न ही सियासी रसूख है। ऐसे में हिंदी भले ही दुनिया की एक बड़ी आबादी की भाषा कहलाती हो उसका संयुक्त राष्ट्र की भाषा बनना फिलहाल मुश्किल ही है(प्रणय उपाध्याय,दैनिक जागरण,दिल्ली,14.9.2010)।
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