आज हिंदी को लेकर तमाम प्रश्न उठाए जा रहे हैं। उसको राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलाने का प्रयास किया जा रहा है और साथ-साथ अंग्रेजी के सापेक्ष रखकर उसकी मौखिक वकालत की जा रही है। एक बार एक साहित्यिक पत्रिका में लिखा गया था-14 सितंबर को प्रति वर्ष हिंदी दिवस मनाया जाता है। ..श्राद्ध पक्ष में जैसे ब्राह्मणों को ढूंढ-ढूंढ कर भोजन कराया जाता है उसी तरह हिंदी दिवस, सप्ताह या पखवाड़े में हिंदी के विद्वानों को ढूंढ-ढूंढ कर व्याख्यान देने और पुरस्कार वितरण करने के लिए आमंत्रित किया जाता है। यह वक्तव्य हिंदी के खोखले प्रेमियों की खोखली मानसिकता पर ही प्रकाश डालता है। इन लोगों में हिंदी के प्रति निष्ठा या प्रेम का भाव कम ही होता है। वस्तुत: जो लोग हिंदी का रोना रोते देखे जाते हैं उन्हें हिंदी की वास्तविकता का ज्ञान शायद ही हो! वास्तव में जिसे हम हिंदी कहते हैं उसमें 17 बोलियों का समाहार है। इनमें कन्नौजी, खड़ी बोली, ब्रज, बांगरू, बुंदेली, अवधी, मारवाड़ी, भोजपुरी, मैथिली, गढ़वाली आदि शामिल हैं। इस प्रकार हमारे सामने जो हिंदी है वह वस्तुत: इन्हीं 17 बोलियों का मिश्रण है। कहने का तात्पर्य यह कि हिंदी की सीमा इतनी विस्तृत है कि बहुत बार हम हिंदी पर बहस करते समय यह भूल जाते हैं कि वास्तव में हिंदी है क्या? दरअसल, जब हम हिंदी कह रहे होते हैं तो हिंदी से मतलब उस मानकभाषा से होता है जो हमारे संविधान में स्वीकृत है, लेकिन जिस हिंदी को हम मानक भाषा बनाना चाह रहे हैं वह बहुत पुरानी नहीं है। इससे निष्कर्ष निकलता है कि भाषा का स्वरूप कभी स्थिर नहीं रहता, वह बदलता रहता है। भाषा एक जल प्रवाह की तरह है। जिस तरह रुका हुआ पानी सड़ जाता है उसी तरह यदि हम भाषा को बांधने का कोशिश करेंगे तो वह नष्ट हो जाएगी। भाषा एक बहता नीर है, जिसमें बहुत सारी चीजें घुलेंगी, बहुत सारी चीजें मिलेंगी और घुल-मिलकर एक नए रूप का निर्माण करेंगी। अब यह हमारे ऊपर है कि हम कौन-सा रूप देखना चाहेंगे? हम पुराने से ही चिपके रहना चाहते हैं या नए से भी रूबरू होना चाहेंगे? कालिदास ने कहा है कि ऐसा नहीं है कि जो पुराना है वह सब अच्छा है और जो नया है वह सब बुरा है। उसको देखने के लिए एक दृष्टि चाहिए कि क्या अच्छा है और क्या बुरा है! हम जानते हैं कि पहले एक दौर में संस्कृत हमारे यहां प्रचलन में थी, फिर पालि आई, प्राकृत, अपभ्रंश और अवहट्ट से होते हुए हिंदी बनी। इस प्रकार संस्कृत से हिंदी तक भाषा का रूप बदलता रहा। आज हिंदी के पक्ष में तमाम दलीलें दी जाती हैं, लेकिन शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो जो केवल हिंदी के ही शब्दों का प्रयोग करता हो! हम इंग्लिश का हिंदी अनुवाद करते हैं अंग्रेजी, लेकिन यह शब्द भी हिंदी का नहीं है। हिंदी में तो उसको आंग्लभाषा कहा जाता है। हम सब कहते हैं अंग्रेजी! यह शब्द है फ्रांसीसी भाषा का। हम प्रयास करते हैं कि हिंदी बोलें, उसकी प्रतिष्ठा करें, लेकिन वह कौन-सा सुराग है जहां से ये भाषाएं हमारी हिंदी भाषा में स्वत: ही घुस आती हैं और हम मजबूर हो जाते हैं उनको अपनाने के लिए। ऐसे बहुत सारे शब्द हैं जिनका हिंदी अनुवाद नहीं है। जैसे कुछ रोचक शब्द लें-बर्फी, जलेबी, समोसा आदि। ये शब्द अरबी-फारसी के हैं। इनके लिए हिंदी में कोई शब्द ही नहीं है। अब यह कहें कि नहीं साब अब हम समोसे के लिए एक नया शब्द खोजेंगे, क्रिकेट का हिंदी नाम रखेंगे तो यह हमारी भूल होगी, क्योंकि भाषा जीवंत होती है। पाणिनि ने देवताओं की वाणी यानी देववाणी को 14 सूत्रों में बांध दिया। भगवान ने इस भाषा का निर्माण किया था, शिव के डमरू से उसका जन्म हुआ था। फिर वह मृतप्राय क्यों हो गई? अगर बची है तो अखबारों अथवा विश्वविद्यालयों में। वह भी नुमाइश के तौर पर। उसका दैनिक जीवन में कोई उपयोग नहीं बचा है। आखिर क्यों? इसका मतलब बस यही है कि भाषा रुकती नहीं है, वह लगातार प्रवाहित होती रहती है। ऐसे में हम तमाम कोशिशों के बावजूद उसका प्रवाह रोक नहीं सकते। हमें उसकी उन्नति के लिए उसी दिशा में जाकर कोशिश करनी होगी। हमने हिंदी में दूसरी भाषाओं के लगभग पांच हजार शब्द अपनाए हैं। जिन शब्दों का हम अपने व्यवहारिक जीवन में प्रयोग करते हैं, जिनके माध्यम से हम अपनी उद्भावनाओं को प्रकट करते हैं, उनकी शब्द-सीमा 2-3 हजार से ज्यादा नहीं होगी और उन शब्दों में बहुत सारे शब्द ऐसे हैं जो हिंदी के नहीं हैं। कालीन, कैंची, कुली, चाकू, चम्मच, तोप, दरोगा, बहादुर, बेगम, लाश, लफंगा (तुर्की); अदालत, अक्ल, आदमी, इनाम, इलाज, औरत, किस्मत, किताब, कुर्सी, जहाज, जलेबी, दवा, दिमाग, दुकान, दुनिया, नहर, नकल, शराब, हलवाई (अरबी) आतिशबाजी, आवारा, कारीगर, किशमिश, कुरता, गुलाब, पाजामा, बर्फी, मलाई, मकान, सरदार, समोसा (फारसी); चाय, लीची (चीनी) गमला, आलपिन, पपीता, पादरी, अलमारी (पुर्तगाली) आदि तमाम शब्द विदेशी भाषाओं से हिंदी में इस प्रकार घुल-मिल गए हैं कि उनकी जगह पर कोई अन्य शब्द रखा ही नहीं जा सकता है। अंत में यही कह सकते हैं कि हिंदी का जो रूप विकसित हो रहा है हमें उसमें अटकलें लगाने के बजाय उसके बदलते हुए स्वरूप को अपनाना चाहिए। ऐसा करते हुए यह बिलकुल नहीं समझना चाहिए कि हिंदी में दूसरी भाषाओं के बढ़ते शब्दों से हिंदी का ह्रास हो रहा है, बल्कि यह समझना चाहिए यह उसकी समाहार शक्ति ही है जो दूसरी भाषाओं को अपनी ओर आकर्षित कर रही है। यह हिंदी की विजय ही है कि विदेशी कंपनियां भी अपना प्रचार-प्रसार हिंदी में ही कर रही हैं(सुनील कुमार मानव,दैनिक जागरण,दिल्ली,14.9.2010)।
हिंदी तो दो पाटों को जोड़ता पुल है। हम यह भी पाते हैं कि हिंदी को लेकर लोगों में अलग-अलग दृष्टिकोण है। कुछ तो इतने शूद्धतावादी हैं कि अंगरेज़ी के शब्दों को हिंदी में देख ही नहीं पाते। जैसे हिंदी अपवित्र हो गई हो। सामान्य बोलचाल में प्रचलित अंग्रेज़ी, पुर्तगाली, अरबी, फ़ारसी, उर्दू से लेकर देश की तमाम बोलियों और प्रादेशिक भाषाओं के शब्दों के हिंदी में प्रयोग से सही अर्थों में यह जनभाषा बन सकेगी और तभी हिंदी और हिंदीतर भाषाईयों के बीच की दूरी पट सकेगी। हिन्दी की विकास यात्रा में इसे हिंगलिश बनाने का किंचित प्रयास स्तूत्य नहीं है। हां, इसे निश्चय ही और अधिक प्रयोजनमूलक यानी फंक्शनल बनाया जाए। प्रयोजनमूलक हिन्दी जीवन और समाज की ज़रूरतों से जुड़ी एक जीवन्त, सशक्त और विकासशील हिन्दी भाषा है।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
भारतेंदु और द्विवेदी ने हिन्दी की जड़ें पताल तक पहुँचा दी हैं। उन्हें उखाड़ने का दुस्साहस निश्चय ही भूकंप समान होगा। - शिवपूजन सहाय
हरीश प्रकाश गुप्त की लघुकथा प्रतिबिम्ब, “मनोज” पर, पढिए!