गार्जियन में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार ब्रिटेन के भाषा-विज्ञानी पेक्स लियोनॉर्ड ग्रीनलैड में रह रही जाति विशेष की भाषा और संस्कृति को उसी क्षेत्र में जाकर संरक्षित करने का यत्न कर रहे है। माना जा रहा है कि इस समय विश्व में जितनी भाषा-बोलियां बोली जा रही है सन 2100 तक उनमें करीब आधी लुप्तप्राय: हो जाएंगी। मध्य दक्षिण अमेरिका में बोली जानेवाली चार सौ वर्ष पुरानी कालावाया बोली आज कुछ ही लोगों तक सिमट गई है। आज इस क्षेत्र के लोगों की भाषा स्पेनिश या आयमारा है। आस्ट्रेलिया की आदिवासी बोली अमूर का अस्तित्व कुछ वर्ष पहले समाप्त हो चुका है। मेदनायज ऐल्यूट पूर्वी साइबेरिया के कुछ ही लोगों में बोली जाती है। सिल्तेज दी-नि आरक्षित ओरेगन में बोली जाती है। 1855 में इसका आरक्षण किया गया था, ताकि सभी भाषाओं का प्रयोग आपस में होता रहे। वहां के निवासियों ने चिनूक के पिडगिन रूप को स्वीकार किया। इस तरह स्थानीय बोलियां समाप्त होती चली गईं।
अमेरिका में रेड इंडियंस की अस्सी बोलियों में से पहली बोली यूछी को बोलनेवाले आज मात्र पांच व्यक्ति बचे है। यह भाषा 1900 से ही लुप्त होने की ओर चली गई जब स्कूलों में आदेश निकाला गया कि बच्चे स्थानीय बोली स्कूल में नहीं बोलेंगे, अन्यथा उन्हें दंड दिया जाएगा। ऐसे ही साइबेरिया में बोले जानेवाली निवख मात्र तीन सौ लोगों की भाषा रह गई है। ब्रिटेन के भाषा-विज्ञानी स्टेफिन पेक्स लियोनार्ड कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय की सुविधा छोड़ प्राचीन अवस्था में रह रही एक जाति इनुघित की संस्कृति और परंपरा को लिखित रूप में संग्रहीत करने के लिए उत्तर पश्चिम ग्रीनलैड में रह रहे एक छोटे से समुदाय के पास जा रहे है। इस छोटे कबीले ने अब तक अपनी पुरानी परंपराओं को नहीं छोड़ा है। उनकी बोलचाल की भाषा को इनुकतुन कहते है। इस कबीले के लोग अपनी परंपराएं, किस्से और कहानियां नई पीढ़ी को मौखिक रूप से ही सुनाते चले आ रहे है। लेकिन माना जा रहा है कि मौसम परिवर्तन की आंधी उनके इस जीवन को शायद 10-15 वर्ष तक ही जीवित रख पाएगी। उसके बाद वह दक्षिण की ओर पलायन करने को विवश हो जाएंगे और उन्हें अपनी जीवन-शैली बदलने को विवश होना पड़ेगा। यानी उनकी भाषा और संस्कृति दुनिया से मिट जाएगी। लियोनार्ड का मकसद उनकी भाषा को लिपिबद्ध करने और संस्कृति को रिकॉर्ड कर सुरक्षित रखने का है ताकि आनेवाली पीढ़ी उसे समझ सके। ग्रीनलैड के अन्य समुदाय के विपरीत इस जनजाति पर ईसाई धर्म का कोई असर नहीं पड़ा है। उनकी जीवनचर्या में कहीं आधुनिकता की छाया नहीं है। अधिकांश पुरुष हफ्तों सील, वालरस जैसे स्तनधारियों के शिकार के लिए घर से बाहर रहते है। खराब मौसम से बचने के लिए तंबू गाढ़ते है और बर्फ से बचने के लिए इग्लू जैसी व्यवस्था करते है। आज इनकी बोली-भाषा का संरक्षण भाषाई जीवाश्म (फासिल) के रूप में किया जा रहा है और इसे सबसे पुरानी और विशुद्ध बोली माना जा रहा है। यह लोग उत्तरी बफिन की खाड़ी के उत्तर पश्चिम ग्रीनलैड में रहते है। सुदूर उत्तर में स्थाई रूप से 70 इंगुहित निवास करते है। लिओनार्ड की इस समुदाय के प्रति रुचि दस वर्ष पूर्व मेरी हरवर्ट द्वारा लिखित पुस्तक ’श्दो पीपुल्स‘ से बढ़ी। इसमें लेखिका ने जानकारी दी थी पर इस समुदाय का अस्तित्व और संस्कृति खतरे में है। इसी के गहन अध्ययन के लिए वह अपने को तैयार कर रहे है। इस प्रयास में वह उनकी भाषा को सीख और अपने को उस वातावरण के अनुरूप ढालने की कोशिश कर रहे है।
दुनिया के अन्य हिस्सों से सर्वथा विपरीत मौसम वाले आर्कटिक को अंधेरे को भी झेलना पड़ता है। वहां 24 अक्तूबर को सूर्यास्त के बाद आठ मार्च को सूर्योदय होता है। यही वह समय होता है जब बुजुर्ग बच्चों को अपनी भाषा-संस्कृति से अवगत कराते है। लियोनार्ड का मानना है कि भाषा लुप्त होने की वजह माता-पिता है जो अपने बच्चों को अपनी ही बोली में बात नहीं करने देते और फिर धीरे-धीरे उस भाषा का अस्तित्व समाप्त होने लगता है। आज इस क्षेत्र में मौसम में परिवर्तन दिखने लगा है। सील की तादात घट रही है और बर्फ की पर्त पतली होती जा रही है, जिसकी वजह से स्लेज गाड़ी को चलाना मुश्किल हो गया है। भाषा विज्ञानी लियोनार्ड अपने मिशन में बजाए व्याकरण और शब्दकोष लिखने के भाषा को रिकार्ड करने की कोशिश में है। इसलिए आज हर किसी का दायित्व है कि वह अपनी जड़ों से जुड़े रहने के लिए अपनी भाषा नष्ट होने से बचाएं। यदि इसे बचा सकने में असमर्थ है तो उन्हें उस काल की भाषा के तौर पर इतिहास में अंकित करने की कोशिश जरूर करें। दुनिया में नई तकनीक ने भाषा में जो बदलाव किये है और करने जा रही है, उसमें शायद सबसे अधिक बोली और समझी जानेवाली भाषा का ही समय होगा। इसीलिए चीन जैसा देश भी अंग्रेजी भाषा सीखने के लिए छटपटा रहा है। जापान भी अपनी भाषा का अधिक विस्तार न होने से सिकुड़ता-सा लग रहा है। भाषाएं आज आर्थिक आधार भी हो गई है, इसीलिए सर्वाधिक लोगों द्वारा बोली और समझी जानेवाली भाषा भी स्थिर नहीं है। उस पर भी आर्थिक कमजोरियां प्रहार कर रही है( राष्ट्रीय सहारा,3.9.2010)
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