बदल रहा है नजरिया
अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा अपने भाषणों में अमेरिकियों को शिक्षा का महत्व समझा रहे हैं। उनका मानना है कि भारत का भविष्य सुनहरा है। दरअसल सबसे निचले तबके के भारतीयों में शिक्षा के प्रति जगी प्रबल प्यास ही इस सुनहरे भविष्य का राज है।
हमारे देश के सबसे निचले पायदान की जनता शिक्षा की ताकत को समझने लगी है। वह अपने बच्चों कीशिक्षा के लिए कोई भी कीमत चुकाने को तैयार है। चाहे उसे जमीन का एक टुकड़ा ही क्यों न बेचना पड़े। खून तक बेचकर पढ़ाने का जुनून जागा है लोगों में।
कुछ महीने पहले पटना में सड़क के किनारे सब्जी बेच रहे आनंद किशोर को जानकारी थी कि आज आईआईटी, जेईई का रिजल्ट आने वाला है। दोपहर में वह अपने पिता के साथ मेरे घर आया, तब उसे पता चला कि आईआईटी में जाने का उसका सपना पूरा हो गया है। पिता-पुत्र दोनों की आंखों से खुशियों के आंसू थम नहीं रहे थे। यही है भारत के भविष्य की सच्ची तस्वीर।
आज आनंद किशोर जैसे कई युवा कठिन परिस्थितियों से लड़ते हुए प्रतिष्ठित शैक्षणिक संस्थानों में दाखिला लेने या अच्छी नौकरी पाने में सफल हो रहे हैं। अब बीती बात हुई जब शिक्षा सामंतवादियों तथा अमीरों के कब्जे में थी। खास कर हिंदी बेल्ट में गरीब मानकर चलते थे कि मेरा काम बड़े लोगों की खिदमत करना है।
विदेश जा रहे 750 करोड़ रुपए
अब सरकार चाह रही है कि विदेशी विश्वविद्यालय अपनी शाखा भारत में खोलें। सरकार का तर्क है कि ऐसा होने से गुणवत्ता में सुधार आएगा। साथ ही हर साल 1.60 लाख विद्यार्थियों के बाहर पढ़ने जाने से जो चलते 750 करोड़ रुपए बाहर जा रहे हैं, वे देश में ही रहेंगे। ऐसे में दो तरह की शिक्षा उपलब्ध होगी।
दूसरे विदेशी विश्वविद्यालय हमारे यहां आते हैं, तो सामान्य शिक्षा की उम्मीद जनता कैसे करेगी। सुपर पॉवर भारत की खासियत यही होगी कि शिक्षा सबके लिए हो और किसी को अफसोस न रहे कि पैसा नहीं होने से वह बच्चों को बड़े स्कूल में नहीं पढ़ा पाया।
खेल-खेल में पढ़ाई
कर्नाटक के ऋषिवैली स्कूल से प्रेरणा लेकर तमिलनाडु के सरकारी स्कूलों में एक्टिविटी बेस्ड लर्निग (एबीएल) कार्यक्रम शुरू किया गया। अब राज्य के 40,000 स्कूलों में यह प्रणाली अपनाई जा रही है। इसमें ब्लैक बोर्ड और किताबों के परंपरागत तरीकों के बजाय बच्चों को खेल-खेल में पढ़ाया जाता है।
इससे उन पर न दबाव होता है, न पढ़ाई का बोझ। 2007 में एबीएल स्कूलों का परीक्षा परिणाम 25 से 30 प्रतिशत बेहतर रहा। खासकर अंग्रेजी, तमिल और गणित जैसे विषयों में बच्चों का प्रदर्शन काफी अच्छा था। एबीएल स्कूलों में शिक्षकों की उपस्थिति का प्रतिशत भी दूसरे सरकारी स्कूलों के 50 प्रतिशत से काफी अच्छा रहा।
बच्चों को अच्छा शिक्षक बनाएं
आज भी सरकारी आंकड़े बहुत चौंकाने वाले हैं। गरीबी के चलते स्कूल के बाद प्रत्येक 100 में से 88 बच्चों की पढ़ाई छूट जाती है। सरकार भी मानती है कि 2020 तक उच्च शिक्षा में भारतीयों की भागीदारी तेजी से बढ़ेगी।
अभी 22, 480 कॉलेजों व विश्वविद्यालयों में विज्ञान और तकनीकी शिक्षा से लैस लगभग पांच लाख स्नातक हर साल तैयार होते हैं। लेकिन अगर इंडियाज नेशनल एसोसिएशन ऑफ सॉफ्टवेयर एंड सर्विस कंपनी की बात मानें, तो ज्यादा से ज्यादा 20 से 25 फीसदी स्नातक किसी कंपनी में काम करने लायक होते हैं। यह संख्या सुपर पॉवर होने के लिहाज से बहुत कम है।
हर पंचायत तक अंग्रेजी
शिक्षा की लड़ाई में अमीरों ने पहले भी अंग्रेजी का हथियार उठाया था जो गरीबों के पास नहीं था। तब अमीरों के लिए बड़े अंग्रेजी माध्यम के स्कूल खोले गए। स्कूलों में अंग्रेजी शिक्षकों को बुलाया गया। सरकार में अमीर वर्ग की भागीदारी थी सो कई परीक्षाओं में सफल होने के लिए अंग्रेजी अनिवार्य थी। पर भला गरीब भी कहां मानने वाले थे।
उन्होंने मेहनत की और आज वह सब करके दिखा रहे हैं जो अमीर घरों के बच्चे मोटी फीस देकर पब्लिक स्कूल की पढ़ाई के बावजूद नहीं कर पा रहे हैं। अब फिर वैसी ही कोशिश हो रही है। केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षा में कई बदलाव लाने की सोच रहा है।
अंग्रेजी तथा कंप्रीहेंशन पर जोर देने की बात की जा रही है। अगर ऐसा होता है तो फिर अंग्रेजी की दीवार खड़ी हो जाएगी। लेकिन गरीब तबके के छात्र इस दीवार को भी पार कर लेंगे क्योंकि उनमें जुनून है पढ़ने और आगे बढ़ने का। कान्वेंटी बच्चों को मात देने का।
बावजूद इसके कि वे ऐसे स्कूलों में पढ़कर निकल रहे हैं जिनमें शिक्षकों की बात ही छोड़ दें, खिड़की और दरवाजे तक नहीं हैं। लेकिन सरकार इतना जरूर कर सकती है कि केंद्र और राज्य के संयुक्त प्रयास से हर पंचायत के स्तर पर एक अंग्रेजी केंद्र स्थापित किया जाए जहां गांवों के बच्चे निशुल्क अंग्रेजी की शिक्षा प्राप्त कर पाएं(आनंद कुमार,दैनिक भास्कर,दिल्ली,8.10.2010)।
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