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13 अक्तूबर 2010

बोलियों से लैस राष्ट्रीय हिंदीःमृणाल पांडे

साहित्य समाज का दर्पण हो न हो, लेकिन आमफहम भाषा हमेशा अपने समाज का दर्पण होती है। नई हवा में बहकर आ रही लोकप्रिय फिल्मी कविता की कुछ बानगियां देखें-‘सखि सैंयां तो खूबहि कमात है, महंगाई डायन खाए जात है।’

बेशक यह पंक्ति फिल्म का एक पात्र गाता है, लेकिन पूरे देश में जिस सहज तेजी से इन्हें राजनीति से लेकर समाज तक में हाथोंहाथ लिया गया, उससे जाहिर है कि सरल भाषा में कही गई यह बात कवि के अलावा पूरे देश में अन्यत्र भी मनों को अपनी लगी है।

युवा देश की साझा रग को खूब लोकप्रिय यह दूसरा गाना भी छेड़ रहा है, ‘मुन्नी बदनाम हुई डार्लिग तेरे लिए, मैं झंडू बाम हुई डार्लिग तेरे लिए..।’ इस गाने में बहुत सी भावनाएं, भाषाएं और बिंब घुल-मिल गए हैं। और कुछ को लेकर शुद्धतावादी छी छी भले करें, भावनाओं की इस बारह मसाले की चाट का चटखारा लोगों को नई तरह का लग रहा है।

यह हिंदी के दो क्लासिक कवियों, मुक्तिबोध (स्वप्न के भीतर एक स्वप्न/विचारधारा के भीतर और/ एक अन्य/ सघन विचारधारा प्रच्छन्न) अथवा शमशेर (बड़ी से बड़ी कृति यहां तो/ कोई बड़ा ही कीमती इश्तिहार है/आदमी कोई आधुनिक बाजार है..) की क्लासिक शहरी हिंदी से बिलकुल फर्क और व्यापक स्वाद देने वाली गली-कूचे की गंवई बोली को हमारे आगे ला रहा है।

इन गीतों ने ‘वाट एन आइडिया सरजी’ सरीखे विज्ञापनों की भाषा के साथ हिंदी पट्टी की उस पूरी भौगोलिक चौहद्दी का लाभ उठाया है, जो आज की तारीख में बोलियों और अंग्रेजी का एक समवेत और कोलाहलमय अखाड़ा है।

बिना रत्तीभर आत्मसजग हुए, महंगाई से लेकर प्रेम तक हर विषय पर हमारी नई पीढ़ी अपनी बात कहने को बाजार से कैंपस तक हर कहीं इसी भाषा का इस्तेमाल कर रही है, हिंदी साहित्य से भले ही वह फिरंट हो। साहित्य प्रेमी स्वघोषित बुद्धिजीवी वर्ग फिर भी क्लासिक हिंदी की साखी पर ही बात कहने या सुनने को प्रतिबद्ध दीखता है, जबकि लगातार अकादमिक तथा आलोचकीय तमगे बटोरती आई यह हिंदी लोकप्रियता के पैमाने पर बहुत नीचे खड़ी है।

वैचारिक स्तर पर आम आदमी और शोषित किसान मजदूरों को लेकर प्रतिबद्ध लेखकों का मन भी यदि मिली-जुली भाषा को लेकर उछाहभरी फराखदिली दिखाने की बजाय एक तरह से बाहरिया बन बैठे, तो साहित्य के क्षेत्र में एक तरह की रचनात्मक कुलीनता का जन्म हो जाता है। हिंदी में इस कुलीनता ने सरकारी तथा अकादमिक हलकों में चंद नव ब्राह्मणों तथा नव क्षत्रियों को आलोचकीय ताकत से लैस कर हर लोकप्रिय मनोरंजन विधा पर नाक सिकोड़ना फैशनेबल बनवाया है।

हिंदी ने बौद्धिकों तथा आमजन के बीच सहज संवाद के विलोप का साहित्य ही नहीं, लोकतांत्रिक विमर्श के क्षेत्र में भी भारी मोल चुकाया है। साहित्यिक हिंदी से धीमे-धीमे बोलियों के ठसक भरे प्रभुत्व का, उस सहज क्षमता का जिसकी तहत वह बोलियों की चाबुक से संस्कृत तथा अंग्रेजी दोनों को अपने रथ में जोतकर ठेठ भाषा का ठाठ दिखाती रही थी, लोप होने लगा, तो पंचलैट, राग दरबारी और कसप जैसी रचनाएं भी अकादमिक खेमेबंदी के चलते संस्थागत तौर से आंचलिक करार दी जाकर पूरे हिंदी क्षेत्र में उतनी लोकप्रिय न हो सकीं, जितनी हो सकती थीं।

उधर साझी हिंदी के लोप के बाद धार्मिक सहअस्तित्व पर सार्वजनिक विचार-विमर्श को लेकर कट्टरपंथी धड़ों ने उसे राजनीति से जोड़कर फायदा उठाना शुरू कर दिया। हिंदी पारंपरिक पहचान तथा संघियों की भाषा मानी जाने लगी और सीमित समाज की भाषा अंग्रेजी ने खुद को राष्ट्रवादी धर्मनिरपेक्षता की इकलौती पहरेदार घोषित कर दिया।

जब से अयोध्या मसले पर उच्च न्यायालय का फैसला आया है, अखबारों, टीवी और ब्लॉग जगत में एक बार फिर एक कर्कश वाग्युद्ध छिड़ गया है। इसमें एक तरफ संघ परिवार से सहानुभूति रखने वाले वीर बालक हैं, जो हिंदी के प्रति अपने तमाम आग्रह के बावजूद धमर्निरपेक्षता की बजाय धर्मनिरपेक्षतावादियों की अंग्रेजीभाषी जमात को कुढ़ाने को ‘सेकुलर’ या ‘सूडो सेकुलर’ शब्द ही इस्तेमाल कर रहे हैं।

इससे अकादमिक क्षेत्रों के इतिहासकार, विधिवेत्ता और कलाकार इतने बिफरे हैं कि अब वे कट्टरपंथी मुस्लिम समुदाय के साथ डंडा भांजते खड़े हो गए हैं। उनकी वाद-विवाद की भाषा अंग्रेजी या अकादमिक हलकों तक सीमित हिंदी है।

संस्कृति, आस्था तथा भावना जैसे शब्दों की संघी व्याख्याएं उनको शेष देश के संदर्भ में कतई अस्वीकार्य हैं, पर उनकी अंग्रेजी जिरह आमजन के लिए अर्थहीन है, जो अंग्रेजी नहीं समझता, पर अपनी तरह से आस्थावान है। इस पूरे प्रकरण पर छिड़ी मीडिया जिरह में धर्मो का वह अंतरंग निजी रूप हमको कहीं नजर नहीं आता, जो भारत को भारत बनाता है।

याद करें कि मध्यकालीन भारत में हिंदू-मुसलमान के बीच सह-अस्तित्व की अनिवार्यता की इस बहस को मध्यकालीन भक्ति साहित्य की भाषा ने कैसी बेलौस सहजता से समाज के बीचोंबीच ला खड़ा किया था। पर शायद राजनीति के घोड़े पर सवार धर्माधता जितनी बढ़ती है, धर्म को लेकर निजी अनुभूति और भाषा की सहजता उतनी ही घटती जाती है।

इसीलिए हमको इस ककर्श वाद-विवाद में एक अजीब-सा अंतर्विरोध दिख रहा है, जहां अदालती फैसले के खिलाफ नई हिंदू धर्मनिरपेक्षता मुस्लिम कट्टरपंथिता के साथ खड़ी नारे लगा रही है और उधर संघ परिवार पूरी जगह हथियाकर भव्य मंदिर बनाने का नारा उछाल रहा है। उधर, दोनों ही तरफ से मुकदमे से जुड़े सबसे पुराने पक्ष पुरानी चाल की धर्म सापेक्षता आगे लाकर चिंता और लगन के साथ अदालत से बाहर मिलाप की सर्वस्वीकार्य सतह की खोज में जुट गए हैं।

यह लड़ाई दो सदी पहले यूरोप ने भी लड़ी थी, पर वहां चुनौती के केंद्र में धर्म सिर्फ ईसाइयत ही था। धर्म-निरपेक्ष नेतृत्व का काम था नए लोकतांत्रिक राष्ट्रों की रचना के लिए राज्यसत्ता पर से मध्ययुगीन ईसाइयत की जकड़बंदी खत्म करना, पर हमारे यहां धर्म अनेक हैं और मूल चुनौती यह है कि किस तरह अपने इस जाति-धर्मबहुल देश में हर जाति, हर मजहब की अपनी पहचान को कायम रखते हुए समाज को एक एेसी राष्ट्रीय पहचान भी मिले, जो जाति-धर्म के ऊपर हो।

जो विद्वज्जन यूरोप के धर्मनिरपेक्षता संबंधी तजुर्बे को ही नजीर मानकर भारतीय संविधान तथा न्याय संबंधी धारणाएं गढ़ते रहे हैं और आज हमारे धार्मिक अंतर्विरोधों का समाधान उसी में खोज रहे हैं, उनको इस पेचीदगी को समझना चाहिए। हम लाख इतिहास या पुराने कागजात की नजीर दें, यूरोपीय शैली के धार्मिक निर्थकतावाद को न औसत हिंदू मानेगा, न ही मुसलमान।

अब हमको अपनी मध्ययुगीन जड़ों का बेझिझक सामना करना होगा और यह काम हिंदी को बोलियों से लैस राष्ट्रीय संवाद की सहज भाषा बनाए बगैर संभव नहीं। सवाल सिर्फ बोलियों से हिंदी के शब्द भंडार को बढ़ाने का नहीं, हिंदी पट्टी की धार्मिक संवेदना और इतिहासबोध की जटिल बनावट में गहरे पैठकर उनको दोबारा समझने का भी है(दैनिक भास्कर,13.10.2010)।

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