अमन काचरू मामले के अभियुक्तों को चार साल की कैद की सजा देकर हिमाचल प्रदेश की एक सत्र अदालत ने यह संदेश दिया है कि रैगिंग को अब केवल कैंपस की एक समस्या के रूप में नहीं देखा जा सकता, यह एक सामाजिक अपराध है। यह फैसला उन गैरजिम्मेदार छात्रों के लिए सबक की तरह है, जो नियम-कानूनों और मानवीयता को ताक पर रखकर रैगिंग करते हैं। उन्हें समझ लेना चाहिए कि वे इन मामलों में अब सख्त कानूनी कार्रवाई सेबच नहीं सकते।
न्यायपालिका ने पिछले कुछ वर्षों में बार-बार शिक्षा संस्थानों को निर्देश दिया कि वे रैगिंग को लेकर सचेत हो जाएं और इस मामले में सख्त कदम उठाएं। सुप्रीम कोर्ट ने तो इसके लिए बाकायदा एक कमिटी तक गठित कराई, लेकिन शिक्षण संस्थानों ने उसकी सिफारिशों को आधे-अधूरे मन से ही स्वीकार किया।
ज्यादातर संस्थानों ने रैगिंग के मामलों पर लीपापोती करने की कोशिश की है। बहुत हुआ तो दोषियों को चेतावनी या हल्की-फुल्की सजा देकर छुट्टी पा ली। अगर उन्होंने मुस्तैदी से कार्रवाई की होती तो अमन काचरू या उस जैसे कई अन्य छात्रों को जान से हाथ नहीं धोना पड़ता। दिक्कत यही है कि अब तक इस बात को अधिकारियों ने नहीं समझा। उन्होंने कोर्ट के निर्देशों को एक सामान्य सरकारी सर्कुलर की तरह ही लिया। इसलिए रैगिंग रोकने के लिए जो सिस्टम बनाया गया, उसका ढांचा ही काफी लचर है।
रैगिंग रोकने को लेकर बनी राघवन कमिटी की एक सब कमिटी ने कुछ समय पहले जब इस प्रणाली का जायजा लिया तो कई चौंकाने वाले तथ्य सामने आए। इसके लिए जो हेल्पलाइन बनाई गई है उसका बहुत ही बुरा हाल है। एक तो जल्दी कॉल अटेंड नहीं की जाती। दूसरे, अगर नंबर मिल भी जाए तो कंप्लेंट रजिस्टर्ड करवाने में कई बार महीनों लग जाते हैं। इतना टाइम लगने पर पीडि़त स्टूडेंट्स पर तरह-तरह के प्रेशर आते हैं और कई मामलों में स्टूडेंट डरकर अपनी कंप्लेंट भी वापस ले लेता है। कॉल अटेंड करने वालों को कई बार तथ्यों की जानकारी तक नहीं होती। दरअसल इस काम में अप्रशिक्षित कर्मचारियों को लगा दिया गया है।
यह व्यवस्था दुरुस्त न रहने के कारण रैगिंग के कई गंभीर मामले हेल्पलाइन तक नहीं पहुंचे, जिनमें मौत और आत्महत्या के प्रयास भी शामिल हैं। साफ है कि रैगिंग की घटनाओं के लिए आपराधिक प्रवृत्ति वाले छात्रों के साथ हमारा संवेदनहीन सिस्टम भी कम जवाबदेह नहीं है। कई समाजशास्त्री मानते हैं कि रैगिंग के लिए हमारा पवार स्ट्रक्चर जिम्मेदार है। बच्चे परिवार और समाज से इसे ग्रहण करते हैं और अपने भीतर ढोते रहते हैं, जो अपने जूनियर के प्रति उनके रवैये में भी झलकता है। यही कभी-कभी विकृत रूप ले लेता है। वक्त आ गया है जब सारे शिक्षा संस्थान रैगिंग से जुड़े तमाम निर्देशों और नियमों का गंभीरता से पालन करें और एक ऐसा माहौल बनाने का प्रयास करें जिससे इस बीमारी का पूरी तरह खात्मा हो जाए(संपादकीय,नवभारत टाइम्स,दिल्ली,11.11.2010)।
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पिछले साल ८ मार्च को रैगिंग के दौरान हुई पिटाई से राजेंद्र प्रसाद मेडिकल कॉलेज के छात्र अमन काचरू की मौत के मामले में आरोपित चार छात्रों को कांगड़ा के अतिरिक्त जिला और सत्र न्यायाधीश पुरिंदर वैद्य ने चार साल के सश्रम कारावास की सजा सुनाकर एक नजीर पेश की है। सजा तो और भी ज्यादा हो सकती थी लेकिन अदालत ने उन्हें गैर इरादतन हत्या का दोषी ठहराया। यही कारण है कि समाज के कई कोनों से इस सजा को अपर्याप्त बताया जा रहा है। अमन की मौत की पृष्ठभूमि पर यदि नजर डालें तो यह स्वाभाविक भी लगता है। जब चारों सीनियर छात्र अभिनव वर्मा, मुकुल शर्मा, नवीन वर्मा और अजय वर्मा अमन को रैगिंग के नाम पर पीट रहे थे तो उसके कान से खून बहने लगा और वह अपने कमरे में चला गया लेकिन वे नहीं माने और जबर्दस्ती अमन के कमरे में घुसकर उसे फिर पीटा। इतना ही नहीं, अमन की शिकायत पर कॉलेज प्रशासन ने भी कोई कदम नहीं उठाया। अमन की मौत के जिम्मेदार छात्रों को चार साल की सजा जरूर दी गई है लेकिन वास्तव में उन्हें सिर्फ दो साल ही जेल में रहना पड़ेगा क्योंकि पिछले २० महीनों से वे न्यायायिक हिरासत में ही हैं। जाहिर है कि अदालत द्वारा दी गई इस सजा का महत्व प्रतीकात्मक ज्यादा है। न्यायाधीश ने अपनी टिप्पणी में यह तो जरूर कहा कि रैगिंग को कड़ाई से रोकने की जरूरत है ताकि भविष्य में ऐसी घटनाओं की पुनरावृति न हो। ऐसे में अदालत से यह अपेक्षा करना कोई अनुचित नहीं है कि उसे और भी कड़ी सजा देनी चाहिए थी। शंका होती है कि इतनी सजा रैगिंग करने वालों के खिलाफ प्रतिरोधी साबित हो पाएगी। इसलिए जरूरी है कि रैगिंग करने वालों के खिलाफ कड़ी सजा का प्रावधान किया जाए। आखिर तमाम कोशिशों के बावजूद रैगिंग रुकता क्यों नहीं? दरअसल, अधिकांश माता-पिता और लोग मानते हैं कि रैगिंग एक निर्दोष मजाक है और बहुधा वह हानि पहुंचाने के उद्देश्य से नहीं किया जाता। इसके अलावा यह भी माना जाता है कि रैगिंग के जरिए सीनियर और जूनियर छात्रों के बीच बेहतर संवाद स्थापित होता है और नए छात्रों पर इसका सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। लेकिन यह पूरी तरह एक गलत समझदारी है क्योंकि रैगिंग वास्तव में एक आपराधिक समस्या है और उसकी जड़ें मनोवैज्ञानिक और सामाजिक हैं। अमन को मौत के मुंह में धकेलने वालों को सजा तो जरूर मिल गई लेकिन उसकी आत्मा को तब तक शांति नहीं मिलेगी जब तक रैगिंग का नामोनिशान न मिट जाए। पर इसके लिए सरकार को जबर्दस्त प्रयास करने होंगे। क्या हमारी सरकारें इसके लिए तैयार हैं?(संपादकीय,नई दुनिया,13.11.2010)
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दैनिक भास्कर(13.11.2010) का संपादकीयः
पिछले वर्ष मार्च में हिमाचल प्रदेश के एक मेडिकल कॉलेज के छात्र अमन काचरू की बर्बरतापूर्ण रैगिंग के नतीजतन हुई मौत ने सारे देश को झकझोर दिया था। अब करीब डेढ़ वर्ष बाद अदालत ने रैगिंग के लिए जिम्मेदार अंतिम वर्ष के चार छात्रों को दोषी पाया है और उन्हें चार-चार वर्ष के सश्रम कारावास की सजा सुनाई है।
यह फैसला तभी सार्थकहोगा, जब हमारे शिक्षा संस्थान रैगिंग की भीषण कुप्रथा को रोकने में मददगार साबित हो सकें। अमन की रैगिंग और मृत्यु के समय राज्य में न रैगिंग के खिलाफ कानून था और न ही रैगिंग को रोकने के लिए सुप्रीम कोर्ट के सुझावों के अनुरूप व्यवस्थाएं की गई थीं। लेकिन महज डेढ़ वर्ष के अंतराल में फास्ट ट्रैक अदालत का फैसला बताता है कि इस दिशा में हम कितने आगे बढ़े हैं।
अदालत ने रैगिंग केनाम पर अमन की बर्बर पिटाई करने वाले चारों छात्रों पर हत्या के आरोप को स्वीकार नहीं किया। इसके बजाय उन्हें गैर-इरादतन हत्या का दोषी पाया। इसे समझा जा सकता है। जो बात समझ पाना कठिन है वह यह कि गैर-इरादतन हत्या की धारा में भी अधिकतम 10 साल की सजा अदालत ने नहीं दी।
बचाव पक्ष का तर्क यह था कि चारों दोषी सीनियर छात्र युवा हैं और उनके सामने अभी पूरा भविष्य है इसलिए सजा कम दी जानी चाहिए। लेकिन ठीक यही बात 19 साल के अमन की नृशंस पिटाई करते वक्त क्या उन्होंने सोची थी? अगर चारों को ज्यादा कठोर सजा मिलती तो यह रैगिंग करने वाले छात्रों के लिए एक ताकतवर नजीर होती।
अमन के पिता ने, जो बेटे की मौत के बाद रैगिंग के खिलाफ जागरूकता जगाने में जुटे हैं, एक और महत्वपूर्ण बात कही। उन्होंने कहा किअदालत ने रैगिंग में लिप्त छात्रों में कोई भेद नहीं किया, जबकि इनमें उस एक छात्र की भूमिका ज्यादा गंभीर और जघन्य थी जिसने बाकी तीनों का नेतृत्व किया। इस दलील में वजन है। खासकर छात्र जीवन में कोई एक या दो छात्र ज्यादा उच्छृंखल होते हैं और वे दूसरों को ऐसे दुस्साहसी कार्यो के लिए दुष्प्रेरित करते हैं। उन्हें अलग से कड़ी सजा मिलनी चाहिए।
अभी इस फैसले को उच्चतर अदालतों की कसौटी से गुजरना होगा। इसे रैगिंग में लिप्तता के खिलाफ एक कठोर नजीर बनाया जा सके तो यह बहुत अच्छा होगा। लेकिन रैगिंग को रोकने के लिए अभी भी बहुत कुछ करना बाकी है। अभी भी कई विश्वविद्यालयों और अन्य उच्च शिक्षा संस्थानों केप्रशासकों ने जरूरी कठोरता का परिचय नहीं दिया है।
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दैनिक भास्कर(13.11.2010) का संपादकीयः
पिछले वर्ष मार्च में हिमाचल प्रदेश के एक मेडिकल कॉलेज के छात्र अमन काचरू की बर्बरतापूर्ण रैगिंग के नतीजतन हुई मौत ने सारे देश को झकझोर दिया था। अब करीब डेढ़ वर्ष बाद अदालत ने रैगिंग के लिए जिम्मेदार अंतिम वर्ष के चार छात्रों को दोषी पाया है और उन्हें चार-चार वर्ष के सश्रम कारावास की सजा सुनाई है।
यह फैसला तभी सार्थकहोगा, जब हमारे शिक्षा संस्थान रैगिंग की भीषण कुप्रथा को रोकने में मददगार साबित हो सकें। अमन की रैगिंग और मृत्यु के समय राज्य में न रैगिंग के खिलाफ कानून था और न ही रैगिंग को रोकने के लिए सुप्रीम कोर्ट के सुझावों के अनुरूप व्यवस्थाएं की गई थीं। लेकिन महज डेढ़ वर्ष के अंतराल में फास्ट ट्रैक अदालत का फैसला बताता है कि इस दिशा में हम कितने आगे बढ़े हैं।
अदालत ने रैगिंग केनाम पर अमन की बर्बर पिटाई करने वाले चारों छात्रों पर हत्या के आरोप को स्वीकार नहीं किया। इसके बजाय उन्हें गैर-इरादतन हत्या का दोषी पाया। इसे समझा जा सकता है। जो बात समझ पाना कठिन है वह यह कि गैर-इरादतन हत्या की धारा में भी अधिकतम 10 साल की सजा अदालत ने नहीं दी।
बचाव पक्ष का तर्क यह था कि चारों दोषी सीनियर छात्र युवा हैं और उनके सामने अभी पूरा भविष्य है इसलिए सजा कम दी जानी चाहिए। लेकिन ठीक यही बात 19 साल के अमन की नृशंस पिटाई करते वक्त क्या उन्होंने सोची थी? अगर चारों को ज्यादा कठोर सजा मिलती तो यह रैगिंग करने वाले छात्रों के लिए एक ताकतवर नजीर होती।
अमन के पिता ने, जो बेटे की मौत के बाद रैगिंग के खिलाफ जागरूकता जगाने में जुटे हैं, एक और महत्वपूर्ण बात कही। उन्होंने कहा किअदालत ने रैगिंग में लिप्त छात्रों में कोई भेद नहीं किया, जबकि इनमें उस एक छात्र की भूमिका ज्यादा गंभीर और जघन्य थी जिसने बाकी तीनों का नेतृत्व किया। इस दलील में वजन है। खासकर छात्र जीवन में कोई एक या दो छात्र ज्यादा उच्छृंखल होते हैं और वे दूसरों को ऐसे दुस्साहसी कार्यो के लिए दुष्प्रेरित करते हैं। उन्हें अलग से कड़ी सजा मिलनी चाहिए।
अभी इस फैसले को उच्चतर अदालतों की कसौटी से गुजरना होगा। इसे रैगिंग में लिप्तता के खिलाफ एक कठोर नजीर बनाया जा सके तो यह बहुत अच्छा होगा। लेकिन रैगिंग को रोकने के लिए अभी भी बहुत कुछ करना बाकी है। अभी भी कई विश्वविद्यालयों और अन्य उच्च शिक्षा संस्थानों केप्रशासकों ने जरूरी कठोरता का परिचय नहीं दिया है।
क्या हमारी सरकारें इसके लिए तैयार हैं?
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