हाल में एक तेलुगू अखबार में खबर आई थी कि आंध्र प्रदेश के एक गांव में पुस्तकालय नहीं होने की वजह से एक लड़के की शादी टूट गई।
वहां किसी गांव में पुस्तकालय नहीं होना हीनता का प्रतीक माना जाता है। लोग आपसी बातचीत में अक्सर पुस्तकालय का जिक्र करते हैं और यह बताते रहते हैं कि उन्होंने अमुक किताब पढ़ी है। लेकिन उत्तर भारत में स्थिति एकदम उलट है। यहां के पुस्तकालयों की हालत अच्छी नहीं है और समाज को उनकी चिंता भी नहीं है। आज इस बात के ठीक-ठीक आंकड़े नहीं हैं कि देश भर में कितने पुस्तकालय चलती हालत में हैं। देश में कितने पुस्तकालयों की जरूरत है, इसे लेकर भी कोई सर्वेक्षण नजर नहीं आता।
एस. आर. रंगनाथन भारत में पुस्तकालय अभियान के जनक माने जाते हैं। उनकी पहल से ही 1948 में तमिलनाडु में पहला सार्वजनिक पुस्तकालय बिल पास हुआ था। रंगनाथन हमेशा अपने पाठकों का समय बचाने की वकालत करते थे। उनका मानना था कि अपने पाठकों का समय बचाना चाहिए, क्योंकि वह बहुत कीमती है। मगर रंगनाथन की पाठकों का समय बचाने की मांग और पुस्तकालय अभियान दोनों सफलता से अब तक बहुत दूर हैं।
1957 में सिन्हा समिति ने गांव-गांव तक पुस्तकालय पहुंचाने की सिफारिश की थी। सिन्हा समिति के गठन के ठीक सात साल के बाद 1964 में योजना आयोग ने इस विषय पर एक कार्यसमिति गठित की। कार्यसमिति ने भी सिन्हा समिति की अनुशंसाओं पर मुहर लगाई। पर वे सभी अनुशंसाएं फाइलों में दबी हैं। उन्हें लेकर कोई ठोस कार्रवाई नजर नहीं आती।
आज पहले सार्वजनिक पुस्तकालय बिल को पास हुए साठ से अधिक साल गुजर चुके हैं। अब तक आधे दर्जन से अधिक ऐसे राज्य हैं, जहां यह बिल पास ही नहीं हुआ। इनमें छत्तीसगढ़, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश प्रमुख हैं। सन 1962 में केन्द्र सरकार ने अपनी तरफ से पहल करते हुए उन सभी राज्यों को सार्वजनिक पुस्तकालय बिल का एक मॉडल भेजा, जहां यह बिल उस समय तक पास नहीं हुआ था। गौरतलब है कि 62 में छत्तीसगढ़ और झारखंड नहीं बने थे लेकिन बिहार और मध्य प्रदेश की नींद तो अब तक नहीं खुली है।
वैसे हिंदी पट्टी में नागरिकों के व्यक्तिगत प्रयासों से कुछ अच्छे पुस्तकालय चलाए जा रहे हैं। मसलन पाश पुस्तकालय, जिसे करनाल के पुलिस वाले आम लोगों के लिए चला रहे हैं। यह अपने आप में ऐसा इकलौता पुस्तकालय है, जिसके एक हजार आजीवन सदस्यों में से सात सौ सदस्य पुलिस वाले हैं। इसे करनाल के पुलिस जवानों ने उग्रवादियों से लड़ते हुए शहीद हुए अपने चार साथियों बलजीत सिंह, ब्रजेन्द्र सिंह, रघुनन्दन और नारायण सिंह की याद में बनाया। आज यह पुस्तकालय करनाल, पानीपत, कुरुक्षेत्र में होने वाली साहित्यिक गतिविधियों का प्रमुख केन्द्र बना हुआ है।
इसी प्रकार रेड लाइट एरिया में रहने वाली महिलाओं के लिए बिहार के मुजफ्फरपुर में ' परचम ' नाम की संस्था ' जुगनू ' नाम से एक पुस्तकालय चला रही है। परचम की संयोजक नसीमा उन महिलाओं में आत्मविश्वास लाना चाहती हैं और उन्हें पता है कि इस काम में पुस्तकें सबसे कारगर साबित हो सकती हैं। इस तरह के व्यक्तिगत प्रयासों के तो दर्जनों उदाहरण हैं। लेकिन जो प्रयास हो रहे हैं , वे पर्याप्त नहीं हैं। चूंकि पुस्तकालय राज्य सरकारों का विषय है , इसलिए राज्य सरकारों को इसके लिए आगे बढ़कर कुछ कारगर कदम उठाना चाहिए।
पिछले कुछ समय से मूर्तियां और मालाएं लगातार विवाद की वजह बन रहीं हैं। इन पर जो पैसा खर्च हो रहा है उसे पुस्तकालयों पर खर्च किया जाए तो समाज का कहीं ज्यादा भला होगा। दुर्भाग्य है कि कई सरकारें दिखावे पर अनाप - शनाप खर्च कर रही हैं। यह राशि पुस्तकालयों पर खर्च की जा सकती है। इसी तरह कॉरपोरेट सेक्टर भी लाइब्रेरी खोल सकता है। बहरहाल सर्वशिक्षा अभियान के तर्ज पर अब हमारे देश में सर्व पुस्तकालय अभियान चलाने का यही सही समय है। इंटरनेट के आने से अब डिजिटल लाइब्रेरियां शहरों में पॉपुलर हो रही हैं , पर छोटे शहरों , कस्बों और गांवों में बड़े पैमाने पर पुस्तकालयों की जरूरत है। वहां कंप्यूटर और बिजली की सुविधाएं अब भी उपलब्ध नहीं हैं(नवभारत टाइम्स,दिल्ली,25.11.2010)।
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