मध्यप्रदेश के कालेजों पर राज्य शासन भले ही फीस विनियामक कमेटी द्वारा तय फीस के लिए दबाव बनाता हो मगर सरकार खुद ही कमेटी की फीस को नहीं मानती। कमेटी के गठन के सालों बाद भी सरकार अपनी मर्जी की ही फीस चला रही है। शासन की इस मनमानी का खामियाजा भुगत रहे हैं आरक्षित वर्ग के गरीब विद्यार्थी। वहीं गरीबों की शिक्षा के लिए सरकार द्वारा किए जा रहे तमाम दावे भी ढकोसला साबित हो रही हैं। अनुसूचित जाति, जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के छात्र-छात्राओं को शत प्रतिशत फीस की प्रतिपूर्ति राज्य शासन द्वारा दी जाती है। मगर प्रदेश में यह छात्रवृत्ति मात्र औपचारिकता बनकर रह गई है।
प्रोफेशनल कोर्स में प्रवेश लेने वाले आरक्षित वर्ग के छात्र-छात्राओं को अपने दम पर ही पूरी पढ़ाई करना पड़ रही है। वहीं कई छात्र कोर्स के बीच में ही पढ़ाई छोड़ने मजबूर हैं। इसकी वजह है शासन द्वारा द्वारा की जाने वाली बमुश्किल पचास फीसदी प्रतिपूर्ति। जानकारी के अनुसार मध्यप्रदेश प्रवेश एवं शुल्क निर्धारण कमेटी द्वारा करीब पांच सालों से तकनीकी व चिकित्सा पाठ्यक्रमों की फीस तय की जा रही है। वर्तमान सत्र में इंजीनियरिंग की फीस 55 से 60 हजार रुपए तय की गई है। प्रदेश के स्वशासी तथा और विश्वविद्यालयों के संस्थानों के लिए भी फीस का आंकड़ा लगभग यही है। मगर राज्य शासन अभी भी अपनी ही फीस चलाए हुए है। शासन द्वारा इन विद्यार्थियों को अभी भी मात्र 27 हजार 500 रुपए ही प्रतिवर्ष लौटाए जाते हैं जबकि इतनी फीस सरकारी और अनुदान प्राप्त कालेजों की भी नहीं है। इसके चलते आधी फीस छात्र-छात्राओं को अपनी जेब से भरना पड़ रही है। साथ ही उनका पूरा साल अपना प्रवेश बचाने में ही कट रहा है।
लद गया कर्ज का बोझ :
राजधानी में पढ़ रहे सागर के मुकेश अहिरवार का कहना है कि सरकार की योजनाओं को देखते हुए उसके किसान पिता ने इंजीनियरिंग में प्रवेश दिला दिया था। मगर तीन साल से आधी फीस ही मिल रही है। अब वह अपनी जमीन की कीमत पर कोर्स पूरा कर रहा है। सरकार से प्रतिपूर्ति होने के कारण बैंक कर्ज भी नहीं देते। खरगौन के संदीप शकरखाए की हालत तो और भी खराब है। दूसरे साल में ही उसके पिता पर कर्ज हो गया है और अब वह उलझन में है कि आगे की पढ़ाई करे या नहीं।
कालेज भी उलझन में :
शासन की इस रीति-नीति से शासन भी उलझन में हैं। राज्य शासन द्वारा छात्रवृत्ति का चेक छात्रों के नाम से दिया जाता है। अब तो सीधे बैंक खाते में राशि ट्रांसफर किए जा रहे हैं। इससे कालेजों में तो छात्र ही फीस भरते हैं। कालेज संचालक मानते हैं कि शासन द्वारा अपनी कमेटी द्वारा तय फीस की शत प्रतिशत प्रतिपूर्ति की गई है। इसके चलते वे छात्रों से पूरी फीस लेते हैं। गरीबी का उड़ रहा मखौल : छात्र-छात्राओं को गरीब होने के कारण ही शासन मुफ्त में पढ़ाने का दावा करती है, लेकिन फीस की प्रतिपूर्ति साल के अंत में की जाती है। जबकि कालेज संचालक प्रवेश के साथ ही फीस मांगना शुरू कर देते हैं। कालेजों के दबाव में छात्रों द्वारा यहां-वहां से व्यवस्था कर फीस जमा करना पड़ती है। बाद में उन्हें भरपाई की जाती है, वह भी अधूरी। छात्रों का कहना है कि यदि हमारे पास पैसा होता तो शासन से सहायता मांगते ही क्यों? सरकार की उदारता की भी जरूरत क्यों पड़ती? सरकार द्वारा ही हमारी गरीबी का मखौल उड़ाया जा रहा है(दैनिक जागरण,भोपाल,18.11.2010)।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
टिप्पणी के बगैर भी इस ब्लॉग पर सृजन जारी रहेगा। फिर भी,सुझाव और आलोचनाएं आमंत्रित हैं।