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20 नवंबर 2010

क्या सेफ वर्किंग प्लेस के लिए कानून काफी है?

पिछले दिनों केंद्रीय मंत्रिमंडल ने महिला यौन उत्पीड़न रक्षा विधेयक- 2010 को मंजूरी दे दी। इस बिल का मकसद वर्किंग प्लेस पर महिलाओं के यौन उत्पीड़न को रोकना है। देखना है कि यह कब कानून का रूप लेता है।

कामकाजी महिलाओं को वर्किंग प्लेस पर यौन उत्पीड़न से बचाने के लिए एक सक्षम कानून की प्रतीक्षा अरसे से की जा रही है। महिला यौन उत्पीड़न रक्षा विधेयक- 2010 की खासियत यह है कि इसमें संगठित, असंगठित और प्राइवेट तथा पब्लिक सेक्टर भी शामिल किए गए हैं। इसके दायरे में दफ्तर में नौकरी करने वाली महिलाओं के अलावा उस ऑफिस में किसी काम से आने वाली दूसरी महिलाएं भी रखी गई हैं।

कानून के आने से उन लोगों मंे भय पैदा होगा, जो महिला सहकर्मियों या अधीनस्थों के साथ दुर्व्यवहार करते हैं। लेकिन कानून लाने के साथ पुरुषों की मानसिकता का बदलना बेहद जरूरी है। दुनिया के कई विकसित देशों में तो काफी सख्त कानून बने हैं पर इसके बावजूद पुरुषों का रवैया बदला नहीं है। अब उन्होंने उत्पीड़न के अलग तरीके अख्तियार कर लिए हैं जिसमें कहीं न कहीं मानसिक विकृति नजर आती है।

अमेरिका में इक्वल एम्प्लॉयमेंट अपॉरच्युनिटी कमिशन का गठन दफ्तरों में काम करने वाली महिलाओं के अधिकारों की हिफाजत के लिए किया गया है। दफ्तरों में होने वाले यौन उत्पीड़न के मामलों के खिलाफ यहां शिकायत की जा सकती है। इस संगठन ने उत्पीड़न के कई अजीबोगरीब मामलों के बारे में जानकारी दी है।

इनके ब्योरे पिछले दिनों एक अंग्रेजी साप्ताहिक में प्रकाशित हुए थे। एक ब्रोकेज फर्म के बड़े अधिकारी ने अपनी जूनियर को डांस फ्लोर पर गिराया और फिर उसके ऊपर खड़े होने की कोशिश की। महिला क्लर्क की गलती यह थी कि उसने अपने बॉस के साथ डांस करने से मना कर दिया था। दूसरा मामला एक कंपनी के प्रेजिडेंट से जुड़ा था।

उसने महिला सहकर्मी की बिकनी का रंग जानने की इच्छा जाहिर की थी। कुछ ऐसे मामले भी थे कि अधिकारी ने जूनियर महिला कर्मचारियों के सामने अपने ही कपड़े उतारने की कोशिश की। अधिकारियों द्वारा महिला सहकर्मियों को ईमेल के जरिए अश्लील तस्वीर भेजने के भी कई मामले आए।

यह सब कुछ वहां हुआ जहां समाज में काफी खुलापन है। वहां कंपनियों को कामकाजी महिलाओं का यौन उत्पीड़न रोकने के लिए तरह-तरह की कवायद करनी पड़ती है। कंपनियां समय-समय अपने कर्मचारियों के लिए ट्रेनिंग सेशन रखती हैं जिनमें उन्हें वर्कप्लेस राइट्स के बारे में बताया जाता है। कंपनियां किसी तरह की अप्रिय घटना होने पर मुआवजा भी देती हैं। इसके बावजूद ऐसी घटनाएं होती हैं जिनसे रोंगटे खड़े़ हो जाएं।

दुनिया के सभी तरक्की पसंद देशों में यौन शोषण के खिलाफ कानून हैं। फ्रांस के क्रिमिनल कोड में महिला कर्मचारियों का शारीरिक और नैतिक शोषण करना अपराध बताया गया है। ब्रिटेन में 1986 में डिसक्रिमिनेशन ऐक्ट में यौन शोषण को शामिल किया गया है। इसमें यह भी कहा गया है कि अगर किसी महिला ने किसी तरह के यौन प्रस्ताव को ठुकराया और इस कारण उसके साथ भेदभाव किया गया तो यह भी एक तरह का उत्पीड़न ही है।

पश्चिम के कई देशों के यौन उत्पीड़न के नए मामले जाहिर करते हैं कि सिर्फ कानून बना देने से काम नहीं चलने वाला। समाज का नजरिया बदलना भी जरूरी है। महिलाओं को खुद को केवल महिला नहीं एक व्यक्ति के रूप में देखना होगा।

यह इत्तफाक ही है कि पिछले दिनों अमेरिका में हुए एक सर्वे में ज्यादातर कामकाजी महिलाओं ने यह माना था कि दफ्तरों में तरक्की पाने का सबसे अच्छा रास्ता है अपने बॉस की यौन इच्छाओं को पूरा करना।

सौभाग्य से भारत में स्थितियां अब भी बहुत गड़बड़ नहीं हुई हैं। यहां का सामाजिक ढांचा ही ऐसा है कि स्त्री - पुरुष के कार्यक्षेत्र बंटे हुए हैं। लेकिन भूमंडलीकरण और निजीकरण के बाद कामकाज के तौर - तरीके बदले हैं , समाज का स्वरूप बदला है। स्त्री अब हर क्षेत्र में काम करने सामने आ रही है। इसलिए यौन उत्पीड़न के मामले भी आने लगे हैं। अच्छी बात है कि हमने समय रहते कानून बनाने की तैयारी कर ली है। लेकिन इसके साथ समाज में स्वस्थ माहौल कायम करने के लिए कई स्तरों पर काम करने की जरूरत है(नवभारतटाइम्स,दिल्ली,18.11.2010)।

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