क्या गजब है कि अमेरिका का राष्ट्रपति भारत आता है तो वह सार्वजनिक रूप से स्वीकार करता है कि उसे अपने देश में घटते रोजगारों की चिंता है और हमारे प्रधानमंत्री को इस बात की कोई फिक्र ही नहीं कि भारत में रोजगार अपेक्षित रफ्तार से क्यों नहीं बढ़ रहे है? अमेरिका का राष्ट्रपति खुश है कि वह भारत से 50,000 रोजगारों की सौगात ले कर अपने देश लौट रहा है लेकिन भारत के प्रधानमंत्री सख्ती से यह नहीं कह पाए कि अगर अमेरिका चाहता है कि वस्तुओं के लिए विश्व के सभी बाजार खुल जाएं, तो उसे सेवाओं के लिए भी अपने बाजार विश्व भर के लिए खोलने होंगे। मनमोहन सिंह ने बहुत बेहतर ढंग से भारत का पक्ष रखा कि हमारा धंधा दूसरों के रोजगार छीनना नहीं है,आउटसोर्संिग से अगर भारत को फायदा पहुंचा है, तो अमेरिका को भी लाभ हुआ है। लेकिन यह स्पष्ट है कि बराक ओबामा अपने देश में आउटसोर्सिंग पर रोक लगाना चाहते हैं, ताकि अमेरिका में रोजगार के अवसर बढ़ सकें। आउटसोर्संिग की नीति पूंजीवाद अथवा खुले बाजार के सिद्धांत के पूरी तरह अनुकूल है। इसके अनुसार, पूंजीपति को यह अधिकार है कि जहां माल बनवाना सस्ता हो, वहां वह माल बनवाए और जहां माल बेचना सबसे ज्यादा मुनाफेदार हो, वहां अपना माल बेचे। यही सिद्धांत सेवाओं पर भी लागू होता है। अगर सेवाओं की आउटसोर्संिग करने से अमेरिकी सेठ का फायदा बढ़ता है, तो वह सिर्फ देशप्रेम के कारण ये सेवाएं अमेरिका में रहने वाले लोगों से नहीं ले सकता। उसका तर्क यह होगा कि आउटसोर्सिंग करके हम दौलत कमा रहे हैं और अमेरिकी अर्थव्यवस्था को मजबूत बना रहे हैं, तो क्या यह देश सेवा नहीं है!
अमेरिका के जागरूक लोग, जिनमें राष्ट्रपति ओबामा भी शामिल हैं, आउटसोर्सिंग का विरोध इस आधार पर कर रहे हैं कि इस व्यवस्था में वृद्धि अमेरिका में रोजगार का संकट पैदा कर रही है, तो ऐसे आर्थिक विकास से खुदा बचाए। हम थोड़ा कम अमीर रह लेंगे पर हमारे लोगों को रोजगार न मिले या अमेरिकी कम्पनियां ही रोजगार छीन ले जाएं और दूसरे देशों में बांट आएं, ये हमें मंजूर नहीं है। अर्थात पूंजी और श्रम के इस द्वंद्व में खुले बाजार की हामी अमेरिकी सरकार भी पूंजी नहीं, श्रम का पक्ष ले रही है। यह हमें इस तथ्य की याद दिलाता है कि अमेरिका में पूंजीवाद जरूर है पर वहां लोकतंत्र भी है। अगर वहां पूंजीवाद का तर्क चलता है, तो लोकतंत्र का तर्क भी चलता है। पूंजीपति को चुनाव नहीं लड़ना होता, पर राष्ट्रपति को तो अगला चुनाव लड़ना है और अगर वह अगला चुनाव लड़ना नहीं चाहता, तो वह जिस पार्टी का प्रतिनिधित्व कर रहा है, उसे तो लड़ना ही है। जैसे ही रोजगार की दर गिरने लगती है, राष्ट्रपति कोई भी हो, उसके दिल की धड़कन बढ़ने लगती है। यह हाल उस मुल्क का है जिसे दुनिया का सबसे ताकतवर देश माना जाता है। ये विचार उस आदमी के हैं जिसे दुनिया का सबसे शक्तिशाली व्यक्ति माना जाता है। जब उनके यहां रोजगार घटने लगते हैं, वे अपनी मूलभूत आर्थिक नीति से समझौता करने के लिए तैयार हो जाते हैं और अपने उद्योगपतियों पर अंकुश लगाने लगते है लेकिन हमारे प्रधानमंत्री को उन रोजगारों की कोई फिक्र नहीं है जो भारत से निकल कर विदेश, खासकर चीन जा रहे हैं। इसके कुछ व्यक्तिगत उदाहरण मैं देना चाहूंगा : जब महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के अपने आवास में मुझे पढ़ने के लिए टेबल लैंप की जरूरत हुई, तो मेरी पत्नी बाजार गइर्ं। वहां उन्हें जो भी टेबल लैंप मिले, वे सभी चीन में बने हुए थे। तो वह चीनी लैप ही खरीद लाई। वह सुंदर है, उपयोग की ष्टि से ठीक है और सस्ता भी है। लेकिन जब भी उसे जलाता हूं, तो मेरे दिल में हूक-सी उठती है। यह सोच कर मैं कांप उठता हूं कि इसे चीन के किसी कारोबारी ने बनवाया होगा और उसी चीनी उद्योगपति ने इसका भारत तथा अन्य देशों में निर्यात किया होगा। इसमें असली कमाई तो चीनी उद्योगपति कर रहा है और वहां के मजदूरों को रोजगार मिल रहा है। इससे भारत की कमाई घट रही है और जो रोजगार भारत में पैदा हो सकते थे, वे चीन में पैदा हो रहे हैं। मेरा अफसोस तब और बढ़ गया जब मुझे पता चला कि भारत के बहुत-से उद्योगपति अपना माल चीन में बनवा रहे हैं और उसे भारत ला कर बेच रहे हैं। इनमें खिलौनों से लेकर इलेक्ट्रॉनिक आइटम भी हैं। यह तो हम सभी को पानी-पानी कर देने वाली बात है। हमारे देश की पूंजी विदेश जा कर रोजगार पैदा करे, यह असह्य है। इससे तो भारत गरीब ही होगा। अगर अमेरिकी, कनाडाई, जर्मन, ब््िराटिश आदि कम्पनियां ऐसा कर रही हैं और अपने पहले से ही मोटे मुनाफे को और मोटा कर रही हैं, तो वे जानें। हमें तो अपनी चिंता करनी चाहिए और भारत में रोजगार बढ़ाने के लिए जो कुछ भी सम्भव है, वह करना चाहिए। यह हमारा अधिकार ही नहीं, हमारा कर्त्तव्य भी है। हम अमेरिका तथा अन्य देशों द्वारा की जा रही आउटसोर्संिग से गदगद हैं लेकिन इससे जितनी कमाई हम कर पा रहे है, उससे ज्यादा घाटा हमें उस आउटसोर्संिग से हो रहा है जो हम चीन, ताइवान, मलयेशिया आदि देशों को कर रहे हैं। जरूरी नहीं कि जो अमेरिका के लिए अच्छा है, वही भारत के लिए भी अच्छा हो। अब सवाल यह है कि जो लोग देश की नीतियां तय कर रहे हैं, उनके मन में यह बात कैसे बैठाई जाए। राजकिशोर परत दर परत भारत में रोजगार बढ़ाने के लिए जो कुछ भी संभव है, वह करना चाहिए। यह हमारा अधिकार ही नहीं, हमारा कर्तव्य भी है। हम अमेरिका तथा अन्य देशों द्वारा की जा रही आउटसोर्संिग से गदगद हैं लेकिन इससे जितनी कमाई हम कर पा रहे है, उससे ज्यादा नुकसान हमें उस आउटसोर्संिग से हो रहा है जो हम चीन, ताइवान, मलयेशिया आदि देशों को कर रहे हैं(राष्ट्रीय सहारा,14.11.2010)
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