अमेरिकी सेमीकंडक्टर कंपनी 'इंटेल' में रहते हुए 1993 में इसके पहले माइक्रोप्रोसेसर पेंटियम का आविष्कार करने वाले इंजीनियरों के टीम लीडर विनोद धाम ने कंप्यूटरों की जान कहे जाने वाले सेमीकंडक्टरों के प्रति लोगों का नजरिया बदला है। 'फादर ऑफ पेंटियम' के रूप में मशहूर 60 वर्षीय धाम के बारे में कहानी कही जाती है कि जब वह अमेरिका पहुंचे थे तो उनकी जेब में महज 8 डॉलर थे। पेंटियम की ईजाद के वर्षों बाद उन्होंने नया माइक्रोप्रोसेसर 'एएमडी' बनाया जिसे पेंटियम किलर के नाम से जाना जाता है। विनोद धाम से हरसिमरन जुल्का की बातचीत :
इंटेल के सह-संस्थापक गॉर्डन मूर का कहना था कि कंप्यूटरों की प्रोसेसर परफॉर्मेंस हर डेढ़ साल में दोगुनी बेहतर होती जाएगी। आपको क्या लगता है, इस मूर्स लॉ की अहमियत आने वाले समय में कब तक बनी रहेगी?
मेरा मानना है कि मूर्स लॉ कम से कम अगले एक और दशक तक उपयोगी बना रहेगा। फिलहाल चिप के आकार को घटाकर 25 नैनोमीटर तक ले आया गया है। टेक्नॉलजी से आज के मुकाबले कहीं ज्यादा अडवांस चिपों की साइज 17 नैनोमीटर तक लाई जा सकती है। देखना यह है कि इसकी क्या उपयोगिता होगी, क्योंकि अब इंडस्ट्री की चाल पूरी तरह बदल चुकी है। चिप इंडस्ट्री की शुरुआत 1969 में हुई थी। चालीस साल के अरसे में कोई भी इंडस्ट्री अमूमन इन चार चरणों से गुजरती है- आरंभिक खोज, उस नए विचार को स्वीकार किया जाना, तेज विकास और फिर सैचुरेशन, यानी प्रॉडक्ट नए दायरे बनना बंद हो जाना। इस लिहाज से चिप इंडस्ट्री अब अपने सैचुरेशन के दौर में है। पर यह सैचुरेशन चिप के विकास के मामले में कम और विभिन्न डिवाइसों में उनके इस्तेमाल के मामले में ज्यादा है। आज जो सैचुरेशन हम देख रहे हैं वह चिप की परफॉर्मेंस के मामले में उतना नहीं है, जितना कहा जा रहा है। जब हमने पेंटियम बनाया था, तब स्पीड हमारे लिए भगवान थी। उस वक्त अगर आप सबसे तेज बीएमडब्ल्यू कार जितनी तेज चिप बना ले रहे थे तो आप हीरो माने जाते थे। पर अब तेज से तेज चिप बनाने का मतलब नैनो या प्रिउस कार बनाने जैसा है। यानी अब गति उतनी महत्वपूर्ण नहीं रही। अब जोर गति बढ़ाने से ज्यादा ऊर्जा की खपत घटाने पर है। चिप इंडस्ट्री में इससे आ रहे बदलाव का उदाहरण है नई डिवाइसों में इस्तेमाल होने वाली एआरएम चिप, जिनकी स्पीड तो कुछ खास नहीं है लेकिन आपके आईपैड या नेटबुक को ये कई हफ्ते तक चलाए रख सकती हैं। अस्सी और नब्बे के दशक में यह मुमकिन नहीं था।
माइक्रोप्रोसेसर कंपनियां इस बदलाव से कैसे निपट रही हैं? ज्यादा फीचर्स जोड़ने पर तो चिप ज्यादा बिजली खाने लगती हैं...
इंडस्ट्री इस परिवर्तन से बहुत बेसिक तरीके से निपट रही है। सिलिकन के एक ही टुकड़े पर ढेर सारे कंपोनेंट और फंक्शन जोड़ने की जगह वे किसी डिवाइस में कई छोटे-छोटे कोर बनाती हैं और उन कोरों को सॉफ्टवेयर्स के जरिए जोड़ देती हैं। इससे डिवाइस एक ही वक्त में कई काम एक साथ कर देती है। इन मोर्चों पर कई नए काम दुनिया में हो रहे हैं, पर अफसोस इस बात का है कि इनोवेशन के ऐसे काम भारत में नहीं हो रहे हैं।
एक अमेरिकी-भारतीय होने के नाते आउटसोर्सिंग और ओबामा की हाल की भारत यात्रा के बारे में आपका क्या कहना है?
हम आउटसोर्सिंग को नकार नहीं सकते। ऐसा करना फिजिक्स को नकारने जैसा होगा। प्राइमरी स्कूल में हमें पढ़ाया गया है कि जब कई परखनलियों को एक-दूसरे से जोड़कर उनमें पानी डाला जाता है तो पानी सभी में समान लेवल तक पहुंच जाता है, इससे फर्क नहीं पड़ता कि उनमें कोई परखनली कितनी मोटी या पतली है। इसी तरह आज की दुनिया फाइबर पाइपों से जुड़ गई है। जहां कहीं भी काम सस्ते में और बेहतर तरीके से हो रहा है, वहां नौकरियां पैदा हो रही हैं। अमेरिकी होने के नाते मैं सिर्फ इतना सोचता हूं कि कोई काम कितने बेहतर ढंग से हो सकता है। अमेरिका के मुकाबले भारत ज्यादा आउटसोर्स करता है। फर्क यह है कि भारत पैसे की आउटसोर्सिंग करता है जबकि अमेरिका नौकरियों की। अमेरिका किसी मामले में कम नहीं है पर उसका कामकाज किसी देश से ज्यादा किसी कंपनी जैसा है। भले ही ओबामा कहें कि आउटसोर्सिंग अमेरिकी जॉब मार्केट के लिए अच्छी नहीं है, पर वह भी इसे रोक नहीं सकते। आउटसोर्सिंग को खराब बताकर ओबामा सिर्फ एक पॉलिटिकली करेक्ट बयान जारी कर रहे हैं। इस मायने में डॉ. मनमोहन सिंह ज्यादा स्मार्ट हैं क्योंकि उनका कहना है कि भारत किसी की नौकरियां नहीं चुरा रहा है। बहरहाल, आउटसोर्सिंग रुक नहीं सकती क्योंकि इससे अमेरिका का पैसा बचता है। अमेरिका को सिर्फ यह तय करना है कि यह बचा हुआ धन उसे कहां निवेश करना है।
क्या आपको लगता है कि जल्द ही भारत से भी कोई पेंटियम या गूगल उभर कर सामने आएगा?
इस वक्त दुनिया की 750 अरब डॉलर की आईटी इंडस्ट्री में से 500 अरब डॉलर का काम ऑफशोरेबल है। यानी एक देश का काम दूसरे देश में कराया जा सकता है। इसमें भारत का हिस्सा महज 60 अरब डॉलर का है, यानी करीब 500 अरब डॉलर का व्यवसाय अभी अछूता पड़ा है। टीसीएस और इंफोसिस जैसी कंपनियों द्वारा अपने बिजनेस मॉडल में तब्दीली करने से पहले इस पैसे का दोहन करना भारत के लिए सिर्फ सपना था। पर अब आईटी इंडस्ट्री ऐसे मोड़ पर आ पहुंची है जहां हम इसका इंतजार कर सकते हैं कि कोई भी हमें कहे कि यह काम करना है और हम उसको शानदार ढंग से कर दिखाएं।
आपने भारत में अपने 20 में से 12 निवेश टेलिकॉम सेक्टर में किए हैं। क्यों?
भारत में आज सेलफोन की वही अहमियत है जो 80 और 90 के दशक में अमेरिका के लिए कंप्यूटर की थी। यहां 65 करोड़ मोबाइल फोन धारक हैं जिनका चीन के अलावा दुनिया में कोई और मुकाबला नहीं है। इंटरनेट के मामले में भी मेरा मानना है कि भारत में इससे जुड़ी कोई बड़ी तेजी आने वाली है। फिलहाल यहां इंटरनेट इस्तेमाल करने वालों की संख्या 5 करोड़ है। मेरा मानना है कि जिस दिन भारत में 3जी सेवाएं पूरी तरह लागू हो जाएंगी, उस दिन यहां इंटरनेट और मोबाइल की मौजूदा तस्वीर पूरी तरह बदल जाएगी। तब भारत पर्सनल कंप्यूटर वाले युग से सीधे मोबाइल और टैबलेट फोन से की जाने वाली स्मार्ट कंप्यूटिंग के दौर में पहुंच जाएगा(नवभारत टाइम्स,दिल्ली,23.11.2010)।
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