मेडिकल शिक्षा से भ्रष्टाचार की सफाई के लिए गठित केंद्र सरकार के "बोर्ड ऑफ गवर्नर्स" पर भी उंगलियां उठने लगी हैं। इसकी संरचना पर उठे सवालों का जबाब देना सरकार के लिए मुश्किल प़ड़ रहा है। बोर्ड पर सरकार के साथ-साथ कर्नाटक के मेडिकल कॉलेज की एक लॉबी का भी वर्चस्व है। इसे पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप (पीपीपी) के एक ब़ड़े खेल के रूप में देखा जा रहा है। छह सदस्यीय बोर्ड ऑफ गवर्नर्स के चेयरमैन डॉ. शिव सरीन सरकार के नुमाइंदे हैं। जीबी पंत में गैस्ट्रो एंट्रोलॉजी के विशेषज्ञ रहे डॉ. सरीन सरकारी अस्पताल इंस्टीट्यूट ऑफ लीवर एंड बिलियरी साइंसेज के निदेशक हैं। बोर्ड के तीन सदस्य निजी (प्राइवेट) क्षेत्र के हैं। इनमें दो बेंगलुरु की मेडिकल कॉलेजों की लॉबी के हैं। एक समूह के डीन हैं तो दूसरे समूह के हार्ट फाउंडेशन के चेयरमैन। इस समूह पर मेडिकल शिक्षा में भारी धांधली के आरोप हैं। तीसरे सदस्य दिल्ली के उस पंचतारा निजी अस्पताल के हैं , जो अक्सर विवादों में रहता है।
बोर्ड पर सरकार एवं एक दागी निजी मेडिकल कॉलेज समूह का कब्जा मेडिकल शिक्षा को रसातल में पहुंचाने का खतरनाक मिश्रण माना जा रहा है। मेडिकल शिक्षा को नियंत्रित करने के लिए एमसीआई का गठन संसद के एक कानून के तहत स्वायत्त संस्था के रूप में किया गया था। इसे सरकारी नियंत्रण से मुक्त रखने के पीछे यह सोच थी कि मेडिकल कॉलेज के धंधे में लगे राजनेता अपनी मनमानी नहीं कर सकेंगे। मगर राजनेता बाज नहीं आए। इसका अंदाजा सुप्रीम कोर्ट की कमेटी की एक पुरानी रिपोर्ट से चलता है। कमेटी ने एमसीआई के १२ साल के क्रियाकलापों की जांच के बाद कहा था कि मेडिकल कॉलेजों में इतने सालों में जो भी धांधली हुई है, वह सरकार की वजह से हुई। सरकार की यह लगातार कोशिश भी रही कि एमसीआई उसके कब्जे में आ जाए। सरकार ने इस साल भ्रष्टाचार का सवाल उठा कर उसे आखिरकार भंग कर ही दिया। उसकी जगह एक अध्यादेश के जरिए गठित यही बोर्ड अभी मेडिकल शिक्षा का कामकाज देख रहा है। अब इस बोर्ड की विश्वसनीयता पर भी सवाल खड़े होने लगे हैं(धनंजय,नई दुनिया,दिल्ली,5.12.2010)।
ाब तो मसले इतने हो गयी हैं कि ऊठाने के लिये उँगलियाँ कम पडने लगी हैं। आभार इस जानकारी के लिये।
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