आजकल जो भी बच्चे पीएमटी, गेट, मेट, सीए, आईआईटी, आईआईएम की पढ़ाई कर रहे हैं और सिर्फ वे ही नहीं निचली कक्षाओं में पढऩे वाले बच्चों का भी पढ़ाई का तरीका बड़ा ही अजीब हो गया है। एक पूरी तरह से बंद कमरा जिसमें हवा, रोशनी और ध्वनि का प्रवेश पूर्ण वर्जित होता है उसके अंदर एक कोने में मेज व कुर्सी रखी है और उस पर एक मासूम दिन दुनिया से बेखबर कुछ पुस्तकों पर टेबल लेम्प की कृत्रिम रोशनी में दिन में 16 से 18 घंटे आंखें गड़ाए हुए है। वो और उसके माता-पिता समझते हैं कि इन पुस्तकों में दुनिया का सारा ज्ञान और दौलत गड़ी हुई है। अगर यह सब कुछ कमोवेश पंद्रह वर्षों तक चलता रहे तो सोचिए कि बच्चे तो बच्चे बड़ों का भी क्या हश्र होगा?
इस पढ़ाई के दौरान उसके कमरे तक चाय, पानी की जिम्मेदारी उसकी मां द्वारा निभाई जाती है और गलती से भी बच्चा यदि घबराकर कभी थोड़ा दरवाजा खोल देता है तो उसे मां फिर से बंद कर देती है ताकि बच्चे की पढ़ाई में विघ्र न पैदा हो। घर के आगंतुकों से भी बच्चे की मुंह दिखाई का रोल भी मां द्वारा ही अदा कराया जाता है। बच्चा कब सोता है? कब उठता है? देर तक क्यूं सोता है? किसी से बात क्यों नहीं करता है? क्यों उसको खाने-पीने की समझ नहीं पड़ती है? क्यों वो यंत्रवत व्यवहार कर रहा है? माता-पिता का इससे कोई वास्ता नहीं। इतना ही नहीं बच्चों के साथ-साथ माता-पिता भी एक तरह से समाज से कटते जाते हैं। इस सबमें पिता की भूमिका आर्थिक संसाधन जुटाने की रहती है, जो वह 12 से 15 घंटे कार्य करके बखूबी निभाता है। ऐसा नहीं कि इन नतीजों से हम वाकिफ नहीं हैं लेकिन हम जानबूझ कर उस तरफ देखना ही नहीं चाहते हैं क्योंकि हम सोचते हैं कि हमारे पास इसके अलावा कोई दूसरा रास्ता ही नहीं बचा है। परिस्थितियां इतनी भयावह हो गई हैं कि कहीं पर बच्चा मां को विलेन समझता है तो कहीं पर पिता को। आजकल बात-बात पर बच्चे घर से भाग रहे हैं। सिर्फ 2004-06 के बीच हमारे देश में 16000 बच्चों ने आत्महत्या की है और प्रत्येक छह में से एक बच्चे मेें किसी न किसी रूप में अवसाद के लक्षण पाए गए हैं। अमेरिकी समाज में आज दस प्रतिशत लोग अवसादग्रस्त हैं और किसी चीज में हम उनकी बराबरी कर पाए या नहीं लेकिन इस मामले में हम ज़रूर आगे निकल जाएंगे। आशय यह नहीं है कि हम डर-डर कर जिएं लेकिन यदि हम चाहते हैं कि हम मरे बच्चे एक खुशहाल जिंदगी जिएं तो हमें हमारी आज की शिक्षा प्रणाली पर भी चिंतन करना पड़ेगा। हमें वर्तमान पाठ्यपुस्तकों के औचित्य के बारे में फिर से सोचना पड़ेगा। साथ ही विद्यालयों के पीछे छुपे हुए मकसद को ढूंढना पड़ेगा। हमें विद्यालयों से हटकर सीखने के अवसर तलाशने होंगे। (जो कि सहजता और बिना किसी खर्च के उपलब्ध भी हैं), बच्चा आपका है और आप जिंदगी भर उसे हाथ पकड़ कर नहीं चला सकते लेकिन सोचिए अगर चलने से पहले ही वो लडख़ड़ा गया तो? लेकिन अंधेरा जब भी आता है तो पहले रोशनी की व्यवस्था कर के आता है। गांधी और विनोबा ने जो नई तालीम की शुरूआत की थी उसे अब सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि पूरे विश्व ने अपनाना शुरू कर दिया है(दिनेश कोठारी,दैनिक ट्रिब्यून,8.12.2010)।
आपकी यह रचना कल के ( 11-12-2010 ) चर्चा मंच पर है .. कृपया अपनी अमूल्य राय से अवगत कराएँ ...
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