जिन नौनिहालों को माता पिता बड़े प्यार से तैयार कर बसों, वैनों, रिक्शों में स्कूल भेजते हैं, वे शायद इस बात से वाकिफ नहीं हैं कि घर से स्कूल तक उनके नन्हें बच्चे की सुरक्षा राम भरोसे है। जहां बेपरवाह रिक्शा चालक बच्चों को रिक्शों में ठूस रहे हैं वहीं दूसरी ओर सड़कों पर दौड़ती खस्ताहाल स्कूली बसें मासूम बच्चों की जिंदगी से खिलवाड़ कर रही हैं। जगह जगह पर खुल चुके स्कूल प्रबंधन बेशक दाखिलों के समय परिजनों से मोटी फीसें बटोरने के लिए बड़ी बड़ी सुविधाएं देने के लंबे चौड़े दावे करते हैं, पंरतु फिर भी कई स्कूलों के प्रबंधकों ने लालचवश बच्चों को लाने-ले जाने के लिए घटिया बसों व अनुभवहीन चालकों का प्रबंध किया हुआ है। बस किराये के नाम पर चौखी फीस बटोरने वाले ये प्रबंधक बसों में बच्चों को ऐसे ठूस लेते हैं, जैसे ये जानवर हों।
स्कूल बसों के बारे में क्या है सुप्रीट कोर्ट के निर्देश:
* ड्राइवर को 10 वर्ष का अनुभव हो, उसके साथ कम से कम पांच वर्ष का अनुभवी एक कंडक्टर हो।
* बस में फस्र्ट एड किट और आग बुझाने का यंत्र भी जरूरी है।
* प्रति स्कूल बस 20 हजार रूपए वार्षिक टैक्स भरा गया हो।
* ड्राइवर और कंडक्टर दोनों को स्पैशल वर्दी स्कूल की ओर से दी जानी जरूरी है। इस पर स्कूल का नाम और ड्राइवर का नाम लिखा होना चाहिए।
* बस में एक तरफ दो और दूसरी तरफ तीन बच्चे बैठने के लिए सीट लगी होनी चाहिए।
* बस की स्पीड 50 किलोमीटर प्रति घंटा से अधिक नहीं होनी चाहिए।
* बस का बीमा, फिटनेस सर्टिफिकेट व विभाग से स्कूल बस की मान्यता लेना भी जरूरी है।
* बस का रंग भी पीला निश्चित किया गया है।
* 15 साल से ज्यादा पुरानी बस को पास नहीं किया जा सकता।
* शिक्षा संस्थानों को ट्रांसपोर्ट विभाग से हर छह माह बाद नया सर्टिफिकेट जारी करवाना होता है।
हो क्या रहा है :
ड्राइवर के अनुभव की बात तो दूर रही कहीं कहीं तो अनुभवहीन ड्राइवर से ही काम चलाया जा रहा है। पांच वर्ष के अनुभवी कंडक्टर के नाम पर स्कूलों में कार्यरत दर्जाचार मुलाजिमों को ही लाया जा रहा है। बसों में फस्र्ट एड किट तो किसी किसी में मिल जाती है परंतु आग बुझाने वाले यंत्र को तलाशना मुश्किल है। कुछ स्कूलों को छोड़कर ड्राइवर-कंडक्टर को वर्दी देना अभी दूर की बात है। सभी कायदे कानूनों को ठेंगा दिखा बसों में बच्चों को जानवरों की तरह ठूस-ठूस कर भरा जाता है। बच्चों के अभिभावक इस पूरी स्थिति से अवगत होने के बावजूद भी चुप रहने में ही अपनी भलाई समझते हैं(दैनिक ट्रिब्यून,संगरूर,11.1.11)।
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