उत्तर प्रदेश सरकार ने प्रोन्नति में आरक्षण समाप्त करने के हाईकोर्ट के फैसले को सुप्रीमकोर्ट में चुनौती दी है। राज्य सरकार ने सुप्रीमकोर्ट से इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ के फैसले को निरस्त करने का अनुरोध किया। इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ ने गत 4 जनवरी को सरकारी नौकरियों में प्रोन्नति में अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति (एससी एसटी ) को आरक्षण दिए जाने के नियम को अवैध ठहरा दिया था। हाईकोर्ट का कहना था कि राज्य सरकार ने एम नागराजा के फैसले में दिए गए निर्देशों का पालन नहीं किया है। उस फैसले में कहा गया था कि आरक्षण देने से पहले सरकार आरक्षण का लाभ लेने वालों की स्थिति के बारे में अध्ययन कराएगी जो कि राज्य सरकार ने नहीं कराया। हाईकोर्ट के इस फैसले के बाद से उत्तर प्रदेश में फिलहाल प्रोन्नति में आरक्षण लागू नहीं है। शुक्रवार को उत्तर प्रदेश सरकार के एडीशनल एडवोकेट जनरल शैल कुमार द्विवेदी और वरिष्ठ अधिवक्ता पीएस. पटवालिया ने सुप्रीमकोर्ट को बताया कि राज्य सरकार ने हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीमकोर्ट में याचिका दाखिल कर दी है, अत: प्रोन्नति में आरक्षण पर अंतरिम रोक लगाने के मामले में पहले से लंबित याचिका पर फिलहाल सुनवाई स्थगित कर दी जाए। कोर्ट ने उनका अनुरोध मान लिया। सरकार ने कहा है कि राज्य में 1973 से प्रोन्नति में आरक्षण का नियम लागू है और इसे लागू रहने दिया जाना।सरकार ने वर्ष 2001 की सोशल जस्टिस कमेटी की रिपोर्ट का हवाला दिया है जिसमें कहा गया था कि राज्य की नौकरियों में सिर्फ 16.5 फीसदी पदों पर ही एससी-एसटी हैं, जबकि बाकी के 83.5 फीसदी पदों पर सामान्य श्रेणी के लोग हैं। राज्य सरकार का यह भी कहना है कि इंद्रा साहनी के मामले में नौ न्यायाधीशों की संविधानपीठ ने फैसला सुनाया था और उसमें कहा गया था कि एससी-एसटी पहले से ही पिछड़े हैं इसलिए उनके पिछड़ेपन के बारे में आंकलन कराने की जरूरत नहीं है(माला दीक्षित,दैनिक जागरण,राष्ट्रीय संस्करण,29.1.11)।
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