किसी भी समाज और देश का भविष्य उसके बच्चे होते हैं। इस भविष्य को संवारने का औजार शिक्षा होती है। शिक्षा ज्ञान और संस्कार देती है। इसीलिए भारत में बच्चों को शिक्षा का अधिकार भी है। पिछले दो दशकों में शिक्षा का स्तर बढ़ा भी है। आर्थिक उदारीकरण के बाद उच्च और पेशेवर शिक्षा काफी फली फूली है। इस शिक्षा की मशाल ने अनगिनत अंधियारे कोनों को उजालों से भी पूरा है। नित नये-नये स्कूल-कॉलेज खुल रहे हैं। विदेशी शिक्षा संस्थानों से करार हो रहे हैं। विदेशी विश्वविद्यालय भारत में आने को उतावले हैं। कुल मिलाकर, यह एक भव्य तस्वीर है।
मगर इस तस्वीर पर कुछ दागनुमा धब्बे भी हैं। ऐसा ही एक धब्बा है इक्कीसवीं सदी की इस दूसरी दहाई में स्कूल कॉलेजों में बुनियादी सुविधाओं की कमी का होना। और इसका असर शिक्षा तथा शिक्षा के असर पर पड़ना स्वाभाविक है।
महाराष्ट्र देश के सबसे समृद्ध और विकसित राज्यों में से है। मगर क्या कोई यकीन करेगा कि महाराष्ट्र के 31 प्रतिशत स्कूलों में पेयजल नहीं है? जब महाराष्ट्र की यह हालत है, तो बीमारू और पिछड़े राज्यों की हालत का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है।
एनजीओ प्रथम की वार्षिक शिक्षा रिपोर्ट सर्वे (एएसईआर) 2010 में अविश्वसनीय और परेशान करने वाले ऐसे कई खुलासे हुए हैं। जरा गौर करें। महाराष्ट्र के 45 प्रतिशत स्कूलों में शौचालय नहीं हैं। यही नहीं, 59 प्रतिशत स्कूलों में छात्राओं के लिए अलग शौचालय नहीं हैं।
मुम्बई में 15 प्रतिशत पानी कटौती पर ही हड़कंप मच गया था। पर राज्य के ग्रामीण इलाकों में करीब एक तिहाई स्कूलों के विद्यार्थियों को प्यासा रहने को विवश होना पड़ता है। इन स्कूलों में पानी के कनेक्शन की बात तो छोड़िये, हैंड पंप तक नहीं हैं। जिन 69 प्रतिशत स्कूलों में पानी उपलब्ध है भी, उनमें से ज्यादातर में मिट्टी के बरतनों में पानी भरकर रखा जाता है। स्कूलों के भीतर पानी के स्रोत कम ही हैं। ज्यादातर स्कूलों में तो पानी का इंतजाम विद्यार्थियों के अभिभावकों को करना होता है।
हालांकि ग्रामीण भारत के ज्यादातर स्कूलों को पानी की समस्या का सामना करना पड़ता है, पर इस समस्या को दूर करने की ओर सरकारी एजेंसियों का ध्यान नहीं जाता। यह कोशिश भी निजी और सामुदायिक स्तर पर होती है। ये लोग स्कूलों में मटके रख देते हैं। उनमें पानी भरने की जिम्मेदारी भी ले लेते हैं। इस पानी में काफी अशुद्धियां होती हैं। इसे पीकर विद्यार्थी बीमार हो जाते हैं। मगर परवाह किसे है?
महाराष्ट्र के ग्रामीण स्कूलों में साफ सफाई की हालत भी बदतर है। सर्वशिक्षा अभियान के महाराष्ट्र प्रोजेक्ट प्रमुख नंदकुमार का कहना है कि ग्रामीण स्कूलों में बिजली नहीं है। इसलिए वहां वॉटर प्योरीफायर या वॉटर कूलर नहीं लगाए जा सकते। राज्य का शिक्षा विभाग ग्रामीण विकास अधिकारियों के साथ मिलकर काम कर रहा है। लेकिन स्कूलों में विद्यार्थियों को ये सुविधाएं देने के लिए अभी लम्बा रास्ता तय करना है।
यूनिसेफ ने भी अपनी एक रिपोर्ट में इस स्थिति पर चिंता व्यक्त की है। इस रिपोर्ट के अनुसार, गांवों के स्कूलों में लड़कियों के पांचवीं क्लास से पहले ही पढ़ाई छोड़ देने की एक बड़ी वजह इन स्कूलों में उनके लिए अलग शौचालय न होना है। 'प्रथम' ने इस दिशा में पहल की है। वह निजी और कॉर्पोरेट भागीदारी से छात्राओं के लिए अलग शौचालय बनाने में जुटा है। बकौल नंदकुमार, तीन चार साल में काफी काम हो जाएगा।
लेकिन तब तक कितनी लड़कियां स्कूलों से मुंह मोड़ चुकी होंगी?
स्कूलों में पर्याप्त सुविधाओं का न होना विद्यार्थियों को पढ़ाई छोड़ने को तो विवश करता ही है, पढ़ाई जारी रखने वालों के प्रदर्शन को भी बिगाड़ता है।
यही सर्वे बताता है कि पहली क्लास के 66 प्रतिशत विद्यार्थी 1 से 9 तक के अंकों को नहीं पहचानते। तीसरी क्लास के 36.5 प्रतिशत विद्यार्थी सामान्य घटा के सवाल हल नहीं कर पाते। पांचवीं क्लास के 50 प्रतिशत बच्चे आयतन व क्षेत्रफल के सवाल हल नहीं कर पाते। 75 प्रतिशत बच्चे कैलेंडर देखना नहीं जानते। और तो और, पांचवी क्लास के 53.4 प्रतिशत बच्चे दूसरी क्लास की पाठ्य पुस्तकें ठीक से नहीं पढ़ पाते। अयोग्यता और अक्षमता की यह सूची लम्बी है।
इस सबके बावजूद, उच्च शिक्षा में भारतीय विद्यार्थी विदेश में सफलताएं पाते हैं, भारतीय शिक्षा संस्थानों में सफलता के नित नये प्रतिमान रचते हैं और विज्ञान, मानविकी, वाणिज्य, इंजीनियरिंग, डॉक्टरी तथा एमबीए में अपना लोहा मनवाते हैं। यह काली तस्वीर का उजला पहलू है। इससे यही साबित होता है कि बेहतरीन योग्यता, क्षमता व कौशल यहां भरपूर है। जरूरत केवल बुनियादी ढांचे और सुविधाओं का सहयोग मिलने की है। ऐसा होने पर, वैश्विक स्तर पर भारत की साख और धाक, दोनों बढ़ेंगी।
क्या देश के नीति निर्माता, नेता और बाबू यह बात नहीं जानते? या इसे न जानने में भी उनके निहित स्वार्थ हैं? ये सचमुच यक्ष प्रश्न है(भुवेन्द्र त्यागी,नवभारत टाइम्स,मुंबई,26.1.11)।
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