हर साल 26 जनवरी को गणतंत्र के मौके पर जो झलकियां निकलती हैं, वह हमें हमारे देश की संस्कृति और प्रगति की कहानी बताती हैं, लेकिन जो जमीनी सच्चाई अभी हाल में जारी एक रिपोर्ट ने सारे देश के सामने रखा है, उसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। रिपोर्ट के मुताबिक गांवों में पांचवी कक्षा में पढ़ने वाले तकरीबन 53.4 फीसदी बच्चे दूसरी कक्षा के किताबों को भी ठीक से नहीं पढ़ पाते हैं। इसी तरह पांचवीं कक्षा के 35.9 फीसदी बच्चे ही गुणा-भाग के सरल सवालों को हल कर पाते हैं। चौथी कक्षा के 19 फीसदी बच्चे जोड़-घटाव के सवाल हल नहीं कर पाते और तकरीबन 35 फीसदी पहली कक्षा के बच्चे एक से नौ तक की गिनती नहीं पढ़ पाते। प्रथम नामक एक गैर-सरकारी संगठन की वार्षिक रिपोर्ट 2010 ने यह भी तथ्य देश के सामने रखा है कि देश के स्कूलों में बच्चों की पढ़ाई-लिखाई के अनुरूप अपेक्षित सुधार फिलहाल नहीं हो पाया है। इसके विपरीत स्कूली बच्चों में गणित की समझ कम हुई है और दूसरी कक्षा के 29 फीसदी बच्चे अभी भी एक से सौ तक की गिनती ठीक से नहीं जानते। क्षेत्रफल, आयतन आदि से संबंधित सवालों को आठवीं कक्षा के 40 फीसदी बच्चे ठीक से हल नहीं कर पाते। यह सर्वेक्षण देश के 522 जिलों के 14 हजार से ज्यादा गांवों में सात लाख बच्चों से बातचीत के आधार पर तैयार किया गया। सर्वेक्षण से यह भी खुलासा हुआ कि ग्रामीण इलाकों में छह से 14 आयु वर्ग के करीब 96.5 फीसदी बच्चे स्कूल जाने लगे हैं। इनमें से 71.1 फीसदी का नामांकन सरकारी व 24.3 फीसदी का प्राइवेट स्कूलों में हुआ है। स्कूल में जाने वाले पांच वर्ष के बच्चों के नामांकन में वृद्धि हुई है। वर्ष 2010 में यह आंकड़ा 62.8 फीसदी था जबकि 2009 में 54.9 फीसदी। 11-14 आयु वर्ग की छह प्रतिशत ग्रामीण लड़कियां अब भी स्कूल तक नहीं पहुंच पा रहीं, जबकि 2009 में आंकड़ा 6.8 प्रतिशत था। इस रिपोर्ट का निष्कर्ष यही है कि अब हमारा ध्यान महज संख्या से गुणवत्तापूर्ण शिक्षा पर होना चाहिए। सहस्राब्दी विकास लक्ष्य में शिक्षा भी शमिल है और भारत सरकार के सामने इस लक्ष्य को हासिल करना एक चुनौती है। उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी ने इस रिपोर्ट को जारी करते हुए कहा कि-शिक्षा में गुणवत्ता के सुधार की योजनाओं को कड़ाई से लागू करने की जरूरत है। इसके लिए प्रशासनिक अधिकारी से लेकर स्कूल प्रबंधन और शिक्षकों को पूरी निष्ठा से अपनी जिम्मेदारी निभानी होगी। दरअसल प्राइमरी, माध्यमिक शिक्षा के स्तर पर हमेशा ही सवाल उठते रहे हैं। सरकार की कोशिशें नामांकन पर अधिक केंद्रित है, लेकिन अब योजनाकारों को गुणवत्ता पर ध्यान देना होगा। ऐसी शिक्षा का क्या मतलब जो उन्हें कोई ऐसा हुनर न दे सके जिसके बलबूते वह कोई रोजगार न ढूंढ़ पाएं और मजदूरी करने को विवश हों। शिक्षा के अधिकार का मतलब महज बच्चों का स्कूलों में दाखिला नहीं होना चाहिए? स्कूल जाने का अधिकार दिया है तो उसे यह अधिकार भी हो कि उसे बढि़या शिक्षा मिले और कल्याणकारी राज्य अपनी इस जिम्मेवारी से बच नहीं सकता। रिपोर्ट से यह भी पता चलता है कि ग्रमीण स्कूलों में 2009 की तुलना में 2010 में प्राइवेट स्कूलों में नामांकित बच्चों की संख्या में इजाफा हुआ है। यह संख्या 21.8 फीसदी से बढ़कर 24.3 फीसदी हो गई है। सरकारी स्कूलों में पढ़ाई का स्तर घटिया है और इन इलाकों में पांचवी कक्षा के करीब 27 और आठवीं कक्षा के 31 प्रतिशत छात्रों को ट्यूशन की जरूरत होती है। इस ट्यूशन के लिए उन्हें अलग से फीस देनी होती है। हालांकि प्राइवेट स्कूलों में पढ़ने वाले ऐसे बच्चों की संख्या सरकारी बच्चों से कम है। इसकी ओर भी ध्यान दिया जाना चाहिए। शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार के लिए सरकार को संसाधन जुटाने के साथ-साथ प्रतिबद्धता भी दिखानी होगी। इस संदर्भ में बिहार व पंजाब का जिक्र करना जरूरी है। नीतीश कुमार जब 2005 में पहली बार बिहार के मुख्यमंत्री बने तो उनकी सरकार का एजेंडा सुशासन था, जिसका जमकर प्रचार भी किया गया। बिहार राज्य में नीतीश कुमार की सरकार ने शिक्षा पर भी फोकस किया। वर्ष 2006 में इस राज्य में 11-14 आयुवर्ग के 12.3 फीसदी और 17.6 फीसदी लड़कियां स्कूल नहीं जाती थीं पर 2010 में यह आंकड़ा घटकर 4.4 और 4.6 फीसदी रह गया है। स्पष्ट है कि बिहार में नीतीश कुमार इस मामले में काफी प्रगति की है। इसके लिए सरकार ने दो लाख से ज्यादा प्राथमिक शिक्षकों की भर्ती की जिसमें तकरीबन एक लाख तो केवल महिलाएं ही हैं। नौवीं कक्षा में दाखिला लेने वाली लड़की को मुख्यमंत्री साइकिल योजना के तहत दो हजार रुपये प्रोत्साहन के तौर पर दिए गए। इसका सम्मिलित प्रभाव यह रहा कि इस योजना का लाभ हजारों लड़कियों ने उठाया है। अंकगणित के सवालों को हल करने में पिछले वर्षो की तुलना में 2010 में पंजाब के स्कूली बच्चों में काफी सुधार आया है। सर्वेक्षण से इस बात का भी खुलासा होता है कि किस तरह यह राज्य शिक्षकों के साथ-साथ छात्रों पर भी ध्यान दे रहा है। इस राज्य में ऐसी योजनाएं हैं, जिनका मकसद अध्यापन कला के स्तर को ऊपर ले जाना है। 13 हजार स्कूलों में 60 फीसदी स्कूलों का बुनियादी ढांचा शिक्षा का अधिकार कानून के मानकों के अनुसार संतोषजनक है, जबकि आधे से ज्यादा स्कूलों में अध्यापकों की कमी है और एक तिहाई स्कूलों की स्थिति ऐसी जिसमें और अधिक कक्षाओं को बनाए जाने की जरूरत है। स्कूली शिक्षा में सुधार के लिए दरअसल बुनियादी ढांचे का विकास किया जाना बहुत जरूरी है। स्कूल में पढ़ने के लिए छात्रों को क्लासरूम, ब्लैकबोर्ड, स्वच्छ पेयजल और गरम भोजन की जरूरत है। इसके साथ ही प्रशिक्षित और योग्य अध्यापकों की भी जरूरत है। सरकार इस मामले में खुद को लाचार पाती है। एक सरकारी रिपोर्ट के मुताबिक शिक्षा को पटरी पर लाने के लिए पांच लाख और शिक्षकों की जरूरत है ताकि स्कूलों में अध्यापकों की कमी को पूरा किया जा सके। पूरे देश में सात लाख बहत्तर हजार अप्रशिक्षित अध्यापक हैं और बारह लाख छह हजार अध्यापकों के पद खाली हैं। इस संकट से निपटने के लिए सरकार के पास कोई ठोस योजना दिखाई नहीं देती। यह चर्चा अक्सर सुनाई देती है, पर इस बारे में कुछ भी साफ नहीं पता चल पाता। कभी सरकार बीएड को एक साल से बढ़ाकर दो साल करने का फैसला लेती है तो फिर कभी अध्यापकों का संकट बढ़ने की बात कहकर इस बयान से पलट जाती है कि इससे संकट और गहरा हो जाएगा। पुरुष के साथ-साथ महिला अध्यापकों की भी काफी जरूरत है। राजस्थान और उत्तर प्रदेश में लड़कियों को स्कूल भेजने की स्थिति खराब है। इन राज्यों को इस दिशा में खास ध्यान देना होगा ताकि शिक्षा जैसे सामाजिक क्षेत्र में लड़कियां पिछड़ न जाएं। शिक्षा में पिछड़ने का मतलब जिंदगी में मिलने वाले मौके खो देना है। आज हमारे देश में जिस तरह भ्रष्टाचार, घोटालों और काले धन पर बहस हो रही है, उस माहौल में उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी ने शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने संबंधी जो कुछ कहा है, उस पर क्या सरकार गंभीरता से गौर करेगी। ऐसे में जबकि शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार के दावे कागजी ही साबित हुए हैं(अलका आर्य,दैनिक जागरण,राष्ट्रीय संस्करण,28.1.11)।
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