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05 जनवरी 2011

उच्च शिक्षा का बाज़ारीकरण

मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल उच्च शिक्षा के क्षेत्र में ताबड़तोड़ सुधार कर रहे हैं। अब उन्होंने घोषणा की है कि कॉरपोरेट जगत भी तकनीकी और प्रबंधन शिक्षा संस्थान चला सकेंगे। केवल उसी कंपनी को ऐसे शिक्षण संस्थान चलाने की अनुमति दी जाएगी जो कंपनी कानून 1965 की धारा-25 के तहत मुनाफा न कमाने वाली कंपनी के रूप में पंजीकृत होगी। इसके साथ ही कपिल सिब्बल ने तकनीकी और प्रबंधन शिक्षण संस्थानों में लगभग पचास फीसद सीटों की वृद्धि की घोषणा भी की। यहां सवाल यह है कि वास्वव में कपिल सिब्बल चाहते क्या हैं? एक तरफ वह शिक्षा को व्यापार न बनने देने की बात कहते हैं और दूसरी तरफ कॉरपोरेट जगत के हाथों में उच्च शिक्षा का जिम्मा सौंपने की बात करते हैं। जहां तक तकनीकी और प्रबंधन शिक्षण संस्थानों में सीटें बढ़ाने की बात है, तो ऐसे संस्थान पहले ही विद्यार्थियों की कमी से जूझ रहे हैं। ऐसी स्थिति में सीटें बढ़ाने का क्या औचित्य? दरअसल, कपिल सिब्ब्ल उच्च शिक्षा के क्षेत्र में सुधारों को लेकर काफी हड़बड़ी में हैं। यह हड़बड़ी शिक्षा को बाजारीकरण की ओर ले जा रही है। आर्थिक सुधार और भूमंडलीकरण के इस दौर में शिक्षा के निजीकरण के भरसक प्रयास किए जा रहे हैं। वर्तमान में अधिकांश विश्र्वविद्यालय आर्थिक तंगी और कुप्रबंधन से जूझ रहे हैं। इसी कारण सरकार शिक्षा के निजीकरण में उदारवादी नीति अपना रही है। शिक्षा के निजीकरण के साथ ही अनेक नई समस्याएं पैदा हुई हैं। निजीकरण के कारण शिक्षा लगातार महंगी होती जा रही है। ऐसे में गरीब विद्यार्थियों की चिंता किसी को नहीं है। सरकार के पास उल्टी-सीधी योजनाओं के लिए तो धन है, लेकिन शिक्षा का बजट बढ़ाने में वह आर्थिक संसाधनों के अभाव का रोना रोने लगती है। आज शिक्षा के निजीकरण की नीतियां तो बन रही हैं लेकिन उनमें गरीब विद्यार्थियों के लिए कोई ठोस नियम-कानून नहीं है। जो थोड़े-बहुत नियम-कानून हैं उनकी खुलेआम धज्जियां उड़ाई जा रही है। बाजारीकरण के इस दौर में ठोस नियम-कानूनों के बिना ही तकनीकी और प्रबंधन शिक्षा को कॉरपोरेट जगत को सौंपने की बात कही जा रही है। जिस तरह से बाजार के नियमों को शिक्षा पर लागू किया जा रहा है उससे शिक्षा के उद्देश्यों और उसके सामाजिक चरित्र पर बुरा असर पड़ रहा है। आज शिक्षा के निजीकरण के पक्षधर सामाजिक और शैक्षिक परिणामों की अनदेखी कर तात्कालिक नफा-नुकसान पर ही अपना ध्यान केंद्रित कर रहे हैं। लगभग सभी शिक्षण संस्थान व्यावसायिक पाठयक्रम प्रारंभ कर रहे हैं, लेकिन भारी विसंगतियों के चलते इन पाठयक्रमों की उपादेयता संदिग्ध है। इनमें से कुछ पाठयक्रम अप्रासंगिक हैं तो कुछ अधकचरे। ऐसे पाठयक्रमों की फीस भी काफी महंगी है। विदेशों मे जितने भी प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थान है, वे बेहद महंगे हैं। हार्वर्ड, ऑक्सफोर्ड, कैंब्रिज सभी में शिक्षा महंगी है। वहां का स्तर भी बहुत अच्छा है। महंगा होने के बावजूद वहां कोई मुनाफा नहीं कमा रहा है। वहां जो खर्च हो रहा है वह बेहतरीन शिक्षा सुविधाओं के लिए है। इसके विपरीत हमारे देश में पहले से मौजूद कॉलेजों पर तो ध्यान नहीं दिया जा रहा है, बल्कि नए कॉलेज खोलने और सीटें बढ़ाने पर जोर दिया जा रहा है। भारतीय संविधान में समाजवादी व्यवस्था-सबको समान अवसर और हरेक को जीवन में उत्कृष्टता अर्जित करने की छूट का प्रावधान है। सरकार का यह दायित्व है कि वह इसकी व्यवस्था करे। हालांकि इन सब विसंगतियों के बावजूद हमें यह मानना होगा कि आज शिक्षा के निजीकरण से बचा नहीं जा सकता। ऐसे में यह जरूरी हो जाता है कि तकनीकी और प्रबंधन की शिक्षा कॉरपोरेट जगत को सौंपने और इन पाठयक्रमों में सीटें बढ़ाने से पहले इस मुद्दे के सभी पक्षों पर गंभीरता से विचार किया जाए(रोहित कौशिक,दैनिक जागरण,5.1.11)।

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