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10 जनवरी 2011

भौतिकता नहीं,आत्मिक चेतना पर केंद्रित हो शिक्षा

देशभर के प्रत्येक बच्चे को शिक्षा प्राप्त हो सके, इसके लिए बने शिक्षा के अधिकार के कानून तहत केंद्र और राज्य सरकारों ने भले ही संयुक्त तौर पर जिम्मेदारी ले ली हो, लेकिन इसका प्रत्यक्ष रूप में लाभ पहुंचाने वाली सरकारी मशीनरी की ईमानदारी अन्य क्षेत्रों की ही तरह संशय से परे नहीं है। क्योंकि सरकार द्वारा चलाये जा रहे सर्वशिक्षा अभियान के तहत हुए बड़े फंडिंग घोटाले का उजागर होना इसी का उदाहरण है। सरकार शिक्षा के अधिकार के कानून के तहत हर बच्चे तक प्राथमिक शिक्षा की पहुंच बनाये रखने के बरकस केंद्र से लेकर राज्यों के बीच ऐसे प्रावधानों को तय किया है कि फण्ड के स्तर पर किसी प्रकार की कमी न होने पाए। लेकिन सरकारी मशीनरी में फैले भ्रष्टाचार को देखते हुए कहा जा सकता है कि जितनी बड़ी योजना और उसके लिए

जितना बड़ा बजट, उसमें उतनी ही बड़ी गड़बडिय़ां और उतना ही बड़ा भ्रष्टाचार इसकी पुष्टि करता है। सरकारी रिपोर्ट के आंकड़े भले ही स्कूल पहुंचने वाले बच्चों की संख्या मेंबढ़ोतरी दिखाते हों, लेकिन इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता कि सरकार द्वारा लागू की जाने वाली नीतियां और योजनाएं भ्रष्टाचार से अछूती हैं। अभी भी देश के कई स्कूलों के पास छत पक्की नहीं है। कई स्कूल तो अभी भी टेण्टों में चल रहे हैं। स्कूलों में सबसे छोटे और आसान स्तर की मगर सबसे बड़ी कमी पीने के पानी और शौचालयों की है। जिन स्कूलों में दोनों सुविधाएं हैं, वहां ये अत्यंत घटिया और गन्दगीभरी हैं। यह स्थिति आश्चर्यभरी है कि इन्हीं स्कूलों के शिक्षकों और अन्य स्टाफ के लिए यही सुविधाएं उत्तम स्तर की हैं। स्कूलों के बच्चों को दिये जाने वाले मध्यान्ह भोजन से लेकर कॉपी, किताबों, वर्दी,टाट पट्टी, फर्नीचर और रखरखाव सहित तमाम मदों में जारी बजट में होने वाले घपले किसी से भी छिपे नहीं हैं।

भारत की जगद्गुरु की कहलाने वाली गौरवशाली परम्परा के लिए भ्रष्टïाचार की खबरें शिक्षा क्षेत्र को अपमानित करती हैं। शिक्षा को प्रत्येक बच्चे तक पहुंचाने की जिम्मेदारी ऐसे लोगों पर होनी चाहिए जो स्वयं पढ़े-लिखे और ज्ञानी, सृजनकारी बुद्धि के धनी हों। ऊपरी तौर पर तो यही दिखाई पड़ता है, लेकिन जिन लोगों पर शिक्षा के प्रचार-प्रसार की जिम्मेदारी है, उनका स्वयं ही भ्रष्टïता में लिप्त होना क्या उनके पढ़े-लिखे होने का परिचायक है? उच्च शिक्षा प्राप्त माने जाने वाले ये योजनाकार, अधिकारी, और कार्यकर्ता यदि व्यावहारिक तौर पर ऐसे ही कारगुजारियों को अंजाम देंगे तो ऐसी शिक्षा का क्या लाभ? क्या इसका अर्थ यह नहीं हुआ कि हम ऐसी शिक्षा का अधिक से अधिक प्रसार कर रहे हैं जो आगे चलकर अधिक से अधिक भ्रष्टïाचारियों को ही बढ़ायेगी। यही कारण है कि इस शिक्षातंत्र में पढ़े-लिखे बहुत कम छात्र आगे चलकर मानव समाज में अपनी अद्वितीय विद्वता स्थापित कर पाते हैं।



आवश्यकता सिर्फ इस बात की नहीं है कि अधिक से अधिक बजट शिक्षा क्षेत्र में रखा गया जाए। इसके साथ ही आवश्यकता इस बात की भी है कि जारी की गई योजनाएं और इनके मद में रखे गये बजट का सदुपयोग हो। वर्तमान में शिक्षा प्रणाली छात्रों की मानसिक स्थिति और उनके ज्ञानार्जन के स्तर को समझने तथा उसका तदनुरूप विकास करने में अक्षम है। इसलिए वह न तो छात्र का ही समग्र विकास कर पाती है और न ही समाज का। माना जाए तो शिक्षा का मूल उद्देश्य छात्रों के भीतरी और बाहरी दोनों क्षेत्रों का समन्वित समग्र विकास करना है। इस दृष्टि से देखें तो आज की शिक्षा पद्धति अपने इस मूल उद्देश्य को ही पूरा नहीं कर पाती है। इसका मुख्य कारण है कि आज की शिक्षा सिर्फ भौतिकता पर केंद्रित है, जबकि शिक्षा को प्रथमत: मूल रूप से उस आत्मिक अर्थात चेतना के स्तर पर केंद्रित होना चाहिए जो कि भौतिक जगत के प्रत्येक क्षेत्र की सफलता की वाहक होती है। इसका कारण यह है कि अभी भी शिक्षा में छात्रों की चेतना को जाग्रत कर उन्हें सर्वज्ञ सर्वसमर्थ बनाने की सनातन पारम्परिक ध्यान -योग विद्या को अंगीकार नहीं किया गया है।


अभी छात्रों, शिक्षकों, अभिभावकों के ऊपर उनके पाठ्यक्रम की जो जिम्मेदारियां हैं, उनके मुकाबले वेद-विद्या को सिद्धांतत: और व्यावहारिक रूप मे अंगीकार करना कहीं अधिक सरल और सुगम है। प्राय: सभी स्कूलों में छात्रों द्वारा सामूहिक रूप में विभिन्न तरह की प्रार्थना की जाती है। इसके पीछे यह माना जाता है कि इसके माध्यम से उच्चारित शब्दों का छात्रों के मानसपटल पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। इसी तरह ध्यान-योग पर हुए शोधाययनों से यह बात सिद्ध हो गई है कि ध्यान-योग का मानवीय चेतना पर,शारीरिकी पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है और व्यक्ति द्वारा किये जाने वाले सारे कार्य सकारात्मक और सुचारु होते हैं। इसीलिए यदि सभी विद्यालय और शिक्षण संस्थान अपने यहां वेद-विज्ञान आधारित ध्यान-योग के नियमित अभ्यास करने का पीरियड अनिवार्यत: सम्मिलित कर दें तो विद्यार्थियों की चेतना और बुद्धि सर्वज्ञता और सर्वसमर्थता में जाग्रत रहने की ओर स्वत: अग्रसारित होगी। और उनमें किसी विषय की जटिलताओं या दुरूहता को दूर करने की स्वाभाविक क्षमता का विकास होगा। वैज्ञानिक अध्ययन बताते हैं कि ध्यान-योग के नियमित अभ्यास से चेतना में प्राकृतिक साम्यता बनी रहती है और मस्तिष्क का प्रत्येक तन्तु जाग्रत होता है और बौद्धिक विषयानुकूलता बढ़ती है। सबसे बड़ी बात यह कि चेतना में जाग्रत यह प्रभाव किसी भी प्रकार के दुराचरण के लिए प्रेरित नहीं करता है। ऐसी शिक्षा प्राप्त करने के बाद हरेक व्यक्ति अपने और समाज केलिए ईमानदारीपूर्वक, दोषरहित कार्य करता है(रणजीत सिंह,दैनिक ट्रिब्यून,5.1.11)।

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