हिमाचल प्रदेश भले ही शिक्षा के क्षेत्र में देशभर में नम्बर वन है और प्रदेश सरकार भी अपने बजट का सबसे अधिक हिस्सा केवल शिक्षा पर खर्च करने का दावा कर रही है, लेकिन इस क्षेत्र में आ रहे नतीजे सरकार के लिए शुभ संकेत नहीं है। खासकर राज्य में चल रहे 503.58 करोड़ रुपये के सर्वशिक्षा अभियान के बावजूद सरकारी स्कूलों में पढऩे आने वाले बच्चों की संख्या दिनोंदिन कम हो रही है। इसके विपरीत निजी स्कूल लगातार बुलंदियों की ओर हैं और ये स्कूल शहरी ही नहीं बल्कि ग्रामीण क्षेत्रों में बच्चों की पहली पसंद बन गए हैं।
हिमाचल प्रदेश सरकार इस समय शिक्षा पर लगभग एक चौथाई बजट खर्च कर रही है। इसके अलावा सर्वशिक्षा अभियान के तहत भी हर वर्ष करोड़ों रुपए शिक्षा पर खर्च किए जा रहे हैं बावजूद इसके सरकारी स्कूलों में पढ़ रहे बच्चों की सफलता और इन स्कूलों की ओर बच्चों के रुझान में कमी का दौर थमता नजर नहीं आ रहा है। शिक्षा के क्षेत्र में हुए एक सर्वेक्षण में पता चला है कि वर्ष 2004 से 2007 के बीच राज्य के सरकारी स्कूलों में पढऩे जाने वाले बच्चों की संख्या में 15.3 फीसदी कमी आई, जबकि इसी अवधि में निजी स्कूलों में पढऩे वाले बच्चों की संख्या में 38 फीसदी की वृद्धि हुई। इसी तरह सरकारी अपर प्राईमरी स्कूलों में बच्चों की एनरोलमेंट में इसी अवधि में 5.47 प्रतिशत की गिरावट आई जबकि निजी अपर प्राइमरी स्कूलों में पढऩे वाले बच्चों की संख्या में 32.06 फीसदी की वृद्धि हुई।
शिक्षा के क्षेत्र में हुए इस सर्वेक्षण में एक रूचिकर तथ्य यह भी सामने आया है कि नई एनरोलमेंट की पहली प्राथमिकता निजी स्कूल हैं और जिन बच्चों को इसमें किसी कारणवश दाखिला नहीं मिल पाता केवल वही बच्चे सरकारी स्कूलों में पढऩे जाते हैं। यही नहीं सरकारी स्कूलों में पढ़ रहे बच्चों का इन स्कूलों को अलविदा कह कर निजी स्कूलों में पढऩे जाने की रफ्तार भी लगातार बढ़ी है।
हिमाचल में निजी स्कूलों की ओर छात्रों और अभिभावकों का यह आकर्षण तब लगातार बढ़ता जा रहा है, जबकि केंद्र और प्रदेश सरकार द्वारा संयुक्त रूप से संचालित सर्वशिक्षा अभियान में शिक्षा में गुणवत्ता लाने पर हर वर्ष करोड़ों रुपए खर्च किए जा रहे हैं। इस कार्यक्रम के तहत स्कूलों में जहां आधारभूत ढांचा सुदृढ़ किया जा रहा है, वहीं पढऩे और पढ़ाने के नए-नए तरीके भी इस्तेमाल किए जा रहे हैं। साथ ही सरकारी स्कूलों के शिक्षकों को निजी स्कूलों के साथ प्रतिस्पर्धा करने के लिए कदम ताल के तहत उन्हें प्रशिक्षण दिया जा रहा है। यही नहीं अब बच्चों के स्कूल बैग तक स्कूलों में रखने का प्रावधान किया जा रहा है ताकि निजी और सरकारी स्कूलों की सुविधाओं में कम अंतर रह पाए। फिर भी बच्चों का निजी स्कूलों की ओर पलायन रुकने का नाम नहीं ले रहा।
बताते हैं कि सरकारी स्कूलों को लेकर बच्चों और अभिभावकों में यह धारणा पूरी तरह से घर कर चुकी है कि इन स्कूलों में अनुशासन नाम की कोई चीज नहीं है और उस पर बच्चों को अंग्रेजी के नाम पर कुछ नहीं सिखाया जाता जबकि निजी स्कूलों में इंग्लिश मीडियम बच्चों और अभिभावकों के लिए सबसे बड़ा आकर्षण है।
सर्वेक्षण में यह भी पता चला है कि निजी स्कूलों में हालांकि लड़कों की तुलना में लड़कियों की एनरोलमेंट कम हुई है, लेकिन एक दुखद पहलू यह भी है कि प्राईमरी सरकारी स्कूलों में भी लड़कों की अपेक्षा लड़कियों की एनरोलमेंट में 1.70 प्रतिशत की कमी आई है। इसी तरह सरकारी अपर प्राईमरी स्कूलों में लड़कियों की एनरोलमेंट 2.53 प्रतिशत घटी है। केवल लड़कियों के लिए खुले निजी स्कूलों में लड़कियों की एनरोलमेंट में जोरदार वृद्धि दर्ज की गई है।
बहरहाल प्रदेश में सरकारी क्षेत्र की शिक्षा प्रणाली एक बार फिर से कटघरे में है और यदि हालत यही रही तो कहना न होगा कि सरकारी स्कूलों में कुछ ही अरसे बाद छात्रों को ढूंढ-ढूंढ कर लाना पड़ेगा। प्रदेश में सरकारी स्कूलों से छात्रों और अभिभावकों के मोह भंग का यह हाल तब है जबकि इस समय राज्य में शिक्षकों की संख्या साठ हजार से अधिक है(ज्ञान ठाकुर,दैनिक ट्रिब्यून,30.1.11)।
यह अच्छी ख़बर है कि सरकारी एन्रॉलमेंट घटा है क्योंकि इसका मतलब है कि अभिभावकों में केवल शिक्षा की नहीं बल्कि अच्छी शिक्षा की ललक है. पर बुरी ख़बर ये है कि इन प्राइवेट स्कूलों के अध्यापकों के लिए कोई माप—दंड नहीं हैं...इसलिए ज़रूरी नहीं कि प्राइवेट स्कूल कोई बहुत अच्छी शिक्षा देने वाले हैं, बस बच्चों पर बेहतर ध्यान दिये जाने की सोची जा सकती है
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