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20 जनवरी 2011

उच्च शिक्षा की अधूरी चिंता

पिछले चार महीने से राहुल गांधी देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों में जा-जाकर छात्रों को राजनीति से जुड़ने की सलाह दे रहे हैं। इधर उन्होंने उच्च-स्तर पर हस्तक्षेप कर कई विश्वविद्यालयों में छात्र संघ चुनावों पर लगी रोक हटवाई है। उन्होंने वाराणसी, लखनऊ और इलाहाबाद में विश्वविद्यालयों और दूसरे शिक्षा संस्थानों में जाकर छात्रों को राजनीति में आने को कहा। यहां तक कि विश्वविद्यालयों को राजनीति की नर्सरी बनाने की चाह व्यक्त की। विश्वविद्यालयों को लेकर उनके सभी बयान लगातार केवल राजनीति की चिंता करते हैं। एक बार भी उसमें शिक्षा संबंधी कोई बात नहीं कही गई। उनके विविध वक्तव्यों से लगता ही नहीं कि विश्वविद्यालयों का शिक्षा, शोध और ज्ञान से भी कुछ संबंध है, क्योंकि अपवाद स्वरूप भी राहुल ने शिक्षा संबंधी किसी समस्या या चिंता पर कहीं कुछ नहीं कहा। मानो विश्वविद्यालयों की कुल समस्या राजनीतिक सक्रियता की कमी रह गई हो! बात ठीक उल्टी है। अधिकांश विश्वविद्यालय लंबे समय से राजनीति से ग्रस्त होकर चौपट हो रहे हैं। पिछले वषरें में लखनऊ, उज्जैन, मेरठ, दिल्ली, अलीगढ़ आदि कई स्थानों पर छात्र-राजनीति के नाम पर हिंसा और उत्पात होता रहा है। दक्षिण भारत में भी स्थित भिन्न नहीं है। कर्नाटक और केरल में कई जगह विश्वविद्यालयों, कॉलेजों में छात्र-संघ चुनाव पर ही प्रतिबंध लगाना पड़ा। हर कोई समझता है कि इसका क्या कारण है? छात्र राजनीति अधिकांश स्थानों में केवल स्थानीय दादागीरी चलाने का लाइसेंस भर है। दिल्ली के जामिया विश्वविद्यालय में पिछले कुलपति ने एक बार चालीस ऐसे छात्रों को दाखिला लेने से रोका जो पंद्रह-बीस वषरें से किसी-न-किसी कोर्स में दाखिला लेकर केवल चुनाव लड़ने का धंधा कर रहे थे। तब उन कथित विद्यार्थियों ने भारी तोड़-फोड़ कर विश्वविद्यालय की पचासों लाख की संपत्ति नष्ट कर दी। हाल में उज्जैन में एक प्रोफेसर की इसलिए हत्या कर दी गई, क्योंकि उन्होंने कॉलेज के छात्र-संघ चुनाव को स्थगित करने की सलाह दी। कुछ पहले लखनऊ विश्वविद्यालय में छात्र-संघ चुनाव में अध्यक्ष पद के लिए दस ऐसे उम्मीदवार तैयार थे जिन पर हत्या के मामले दर्ज थे। अधिकांश जगहों पर छात्र-राजनीति का यही रंग है। एक विश्वविद्यालय के चुनाव में 48 वर्ष का छात्र चुनाव लड़ रहा था। इन छात्र-नेताओं में कई ऐसे होते हैं जिन्होंने अपने विषय की किसी किताब का मुंह भी नहीं देखा होता है। उलटे वे दूसरों की पढ़ाई-लिखाई को बाधित करते हैं। छात्र नेताओं द्वारा बात-बात में शिक्षकों को धमकाना, पीटना आदि तो असंख्य विश्वविद्यालयों में हो रहा है। यह सब केवल अनुशासनहीनता की बात नहीं, क्योंकि इन तत्वों को प्राय: राजनीतिक संरक्षण प्राप्त रहता है। हमारे नेतागण छात्र राजनीति को सीधे दलीय राजनीति का औजार मानते हैं। इस पर ठंडे दिमाग से विचार होना चाहिए कि राजनीतिक अभ्यास के नाम पर विश्वविद्यालयों को गुंडागर्दी की आरामगाह बनाना किसके हित में है? क्या शिक्षक, माता-पिता और अधिकांश छात्र चाहते भी हैं कि कॉलेज-विश्वविद्यालयों में राजनीति की नर्सरी चले? यदि नहीं, तो फिर क्यों शिक्षा केंद्रों पर राजनीति को थोपा जाता रहा है? नि:संदेह, देश का जनमत कहीं इसके पक्ष में नहीं है। कुछ लोग कहते हैं कि अच्छे विश्वविद्यालयों में छात्र-राजनीति सुधरी हुई है। लिंगदोह समिति के एक सदस्य का मानना था कि जहां छात्र पढ़ाई में ध्यान देते हैं, वहां छात्र-राजनीति बेहतर है, पर यह भी सच नहीं। केंद्रीय विश्वविद्यालयों में छात्र-राजनीति की गिरावट का रूप दूसरा है, पर उतना ही हानिकारक है। उदाहरणार्थ, दिल्ली का एक प्रसिद्ध विश्वविद्यालय देशद्रोह का पार्टी-स्कूल बना रहा है। वहां नक्सलियों द्वारा सत्तर सुरक्षा-बल जवानों की एकमुश्त हत्या किए जाने पर जश्न मनाया जाता है। वहाँ हर तरह के देशी-विदेशी, भारत-निंदकों को सम्मानपूर्वक मंच मिलता है, किंतु देश के गृह मंत्री को बोलने नहीं दिया जाता। यहां तक कि उनके आगमन तक के विरुद्ध आंदोलन की धमकी दी जाती है। इसलिए, जो लोग विश्वविद्यालयों में विचारधारा वाली छात्र-राजनीति को बेहतर मानते हैं वे भी गलत चीज का ही बचाव कर रहे हैं। वस्तुत: कॉलेज और विश्वविद्यालय राजनीतिक अभ्यास के स्थान नहीं। शिक्षा ग्रहण करने के मूल्यवान काल, और कच्चे मस्तिष्क वाले किशोर-युवाओं के लिए राजनीतिक अभ्यास की जरूरत का कोई तर्क नहीं बनता। उससे हानि अवश्य होती है। राजनीति वैसे भी वयस्क होने के बाद ही पूरी तरह समझ में आती है। यह अनुभवहीन, कच्ची उम्र के बस की बात नहीं। सच्चाई छिपानी नहीं चाहिए। कॉलेज-विश्वविद्यालयों में चुनावी अखाड़ेबाजी की जरूरत केवल दलीय राजनीति को है। अधिकांश दलों ने इसीलिए शिक्षा केंद्रों में राजनीति को प्रोत्साहन दिया है। इसमें उनका संकीर्ण स्वार्थ है, जिसका सामाजिक, राष्ट्रीय और विद्यार्थियों के हितों से कोई लेना-देना नहीं। हमारे नीति-नियंताओं को कभी विश्वविद्यालयों के असली काम, शिक्षा और शोध की गुणवत्ता पर भी कुछ चिंता करनी चाहिए। कभी उसके लिए भी हस्तक्षेप करना चाहिए। राजनीति की अधिकता ने हमारे कॉलेज-विश्वविद्यालयों को बिगाड़ा है। चाहे वह अंदर से हो या ऊपर से। नियुक्तियों का राजनीतिकरण, पाठ्यक्रमों का राजनीतिकरण, पुस्तकों का राजनीतिकरण, हर तरह की राजनीति ने ही विद्या केंद्रों को नष्ट किया है। हमारे उद्योग विश्व-स्तर को छू रहे हैं, किंतु हमारे विश्वविद्यालय अपनी पहले वाली स्थिति से भी नीचे गिर गए। क्या चिंता का विषय यह नहीं होना चाहिए?(एस. शंकर,दैनिक जागरण,20.1.11)

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