अभी तक लोग यही जानते हैं कि पीएचडी माने डॉक्टरेट ऑफ फिलॉसफी। लगता है कि लखनऊ विश्वविद्यालय के लिए पीएचडी के माने बदल गए हैं। शोधार्थियों का तो यही दावा है कि पीएचडी यानी फिर होगा डिस्कस। सच तो है विश्वविद्यालय पिछले तीन वर्षो में पीएचडी के लिए एक अध्यादेश तक नहीं तैयार कर सका है। लगातार बैठकें हो रही हैं लेकिन हर बार एक ही जबाव कि अगली बैठक में इस मुद्दे पर फिर होगा डिस्कस। राज्यपाल और कुलाधिपति बीएल जोशी कई महत्वपूर्ण मंचों से विश्र्वविद्यालयों में शोध कार्यो की गुणवत्ता बढ़ाने का सुझाव दे चुके हैं। विवि इस दिशा में एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सका है। इसका सबसे ज्यादा खामियाजा जेआरएफ, नेट उत्तीर्ण अभ्यर्थियों को भुगतना पड़ रहा है। कई अभ्यर्थी तो ऐसे हैं, जिनकी फेलोशिप मार्च में खत्म हो जाएगी। फिलहाल विवि में 28 जनवरी को एकेडमिक काउंसिल की बैठक है। राष्ट्रीय स्तर की परीक्षा उत्तीर्ण अभ्यर्थी एक बार फिर बैठक के नतीजों की तरफ टकटकी लगाए हुए हैं। लखनऊ विश्र्वविद्यालय में 2008 के बाद नए नियमों की कवायद शुरू हुई। आम तौर पर नया नियम बनने तक पुराना नियम लागू रहता है। लविवि ने पुराने नियम खारिज कर दिए और नए की रूपरेखा भी अभी तक नहीं तैयार हुई है। इसी क्रम में कला और विज्ञान के फैकल्टी बोर्ड की महत्वपूर्ण बैठक 21 जनवरी को है। जेआरएफ, नेट अभ्यर्थियों को प्रवेश परीक्षा से छूट दिए जाने पर सबसे ज्यादा दुविधा है। पूर्व कुलपति प्रो.आरपी सिंह ने इस व्यवस्था को निराशाजनक बताया। उन्होंने कहा कि गुणवत्तापरक शोध को लेकर संस्थान की गंभीरता सबसे महत्वपूर्ण है। इससे समझौता नहीं किया जाना चाहिए। लविवि के प्रवक्ता प्रो.एसके द्विवेदी का कहना है कि सभी छात्रों को बराबर मौका मिलना चाहिए। सबसे बड़ी परेशानी आरक्षण को लेकर न्यायालय में होने वाली अपीलों से है (रणविजय सिंह,दैनिक जागरण,लखनऊ,21.1.11)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
टिप्पणी के बगैर भी इस ब्लॉग पर सृजन जारी रहेगा। फिर भी,सुझाव और आलोचनाएं आमंत्रित हैं।