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12 अगस्त 2011

सुप्रीम कोर्ट के फैसले से परीक्षाएं होंगी पारदर्शी

सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले से देश के करोड़ों विद्यार्थियों को सुकून मिला है, जिसमें सूचना के अधिकार के तहत जांची गयी उत्तर पुस्तिकाओं का पुनर्मूल्यांकन कराने का हक मिला है। अकसर ऐसे मामले प्रकाश में आते हैं जब विद्यार्थियों को लगता है कि उनकी योग्यता का सही मूल्यांकन नहीं हुआ। यद्यपि उत्तर पुस्तिकाओं की जांच करने वाले सभी परीक्षकों की विश्वसनीयता पर सवाल नहीं खड़े किये जा सकते, लेकिन ऐसा भी नहीं है कि सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा है। देखा गया है कि उत्तर पुस्तिकाओं की अधिक संख्या या फिर अच्छा सुलेख न हो पाने के कारण उत्तर पुस्तिकाओं के साथ न्याय नहीं हो पाता। कई बार भाषा की समस्या भी आड़े आती है। यह भी सही है कि कई राज्यों में उत्तर पुस्तिकाओं का मूल्यांकन करने वालों को उचित पारिश्रमिक नहीं मिलता है, अत: वे चलताऊ किस्म का मूल्यांकन कर बैठते हैं। हालांकि हालिया फैसले की कई व्यावहारिक दिक्कतें भी हैं, लेकिन उम्मीद की जानी चाहिए कि इसके बावजूद परीक्षार्थियों को उनका हक मिल सकेगा। जैसे उत्तर प्रदेश में प्रतिवर्ष करीब 38 लाख परीक्षार्थी दसवीं व बारहवीं की परीक्षा में बैठते हैं तो ऐसे में लाखों परीक्षार्थियों को इस अधिकार की सुविधा प्रदान करना काफी कठिन होगा। जहां एक ओर शिक्षकों की सजगता से मूल्यांकन का स्तर सुधरेगा, वहीं दूसरी ओर कालेजों व विश्वविद्यालयों पर काम का अधिक बोझ भी पड़ेगा। सामान्य तौर पर ऐसे परीक्षार्थियों की संख्या काफी अधिक होती है जो अपने अंकों से संतुष्टï नहीं होते। हर किसी को लगता है कि उसे अधिक अंक मिलने चाहिए थे। लेकिन किसी सीमा तक यह पहल उपयोगी जरूर हो सकती है। इसका एक विकल्प यह भी है कि आईआईटी की तर्ज पर उत्तर पुस्तिका के उत्तरों को ऑनलाइन कर दिया जाये ताकि छात्र अपना मूल्यांकन खुद कर सकें।

बहरहाल, अब सुप्रीम कोर्ट के ताजातरीन फैसले से हर छात्र का उत्तर पुस्तिका को देख पाना एक हक जैसा हो जायेगा। वास्तव में यह किसी भी परीक्षार्थी के लिए मौलिक अधिकार सरीखा है। सबसे महïत्वपूर्ण बात यह है कि यह सूचना के अधिकार की अगली कड़ी है और इसकी व्यवस्था करना अधिकारियों का दायित्व है। इसका अभिप्राय: यह है कि देश में किसी परीक्षा की उत्तर पुस्तिका की जांच की जानकारी संबंधित एजेंसी को उपलब्ध करवायी जायेगी। कई मामलों में देखने में आया है कि किसी राष्ट्रीय स्तर की परीक्षा में या शोध हेतु होने वाली प्रवेश परीक्षा के परीक्षार्थी की कापी हिंदी में होने के कारण जांची तक नहीं जाती। ऐसे परीक्षार्थी भी सूचना के अधिकार के तहत अपनी पुस्तिकाओं के मूल्यांकन की स्थिति जान पायेंगे। अकसर परीक्षा का परिणाम आने पर विद्यार्थी अपने अभिभावकों से कहते नजर आते थे कि उसने पेपर तो अच्छा किया था, लेकिन नंबर नहीं आये। अब तमाम ऐसी शंकाओं के निराकरण का मार्ग प्रशस्त हो पायेगा। इस अधिकार से उत्तर पुस्तिकाओं का मूल्यांकन करने वाले वे लोग भी सजग होंगे जो अब तक मूल्यांकन के कार्य को हल्के में लेते रहे हैं। अकसर देखा जाता है कि परीक्षा परिणामों के दिनों में कई छात्र-छात्राएं मनोनुकूल परीक्षा परिणाम न आने पर आत्महत्याएं तक कर लेते हैं, कई छात्र घर छोड़कर भाग जाते हैं। अब ऐसे विद्यार्थियों के जीवन में एक उम्मीद की किरण जगेगी कि पुनर्मूल्यांकन से वास्तविकता सामने आ सकती है। वास्तव में देश में उत्तर पुस्तिकाओं की जांच प्रक्रिया को पारदर्शी बनाने व मूल्यांकन करने वालों को जवाबदेह बनाने की आवश्यकता लंबे समय से महसूस की जा रही थी। सुप्रीम कोर्ट की यह पहल इस दिशा में मील का पत्थर साबित होगी(संपादकीय,दैनिक ट्रिब्यून,12.8.11)।

नई दुनिया का संपादकीय भी देखिएः
सूचना के अधिकार कानून ने हमारे व्यवस्था तंत्र में वर्षों से कायम रहस्य और गोपनीयता की कई दीवारें गिराने का काम किया है। इसी सिलसिले में स्कूलों, कॉलेजों और प्रतियोगी परीक्षाओं की मूल्यांकन प्रणाली भी अब रहस्य या गोपनीयता के दायरे से मुक्त हो गई है। यानी अब इन परीक्षाओं के नतीजे आने के बाद छात्र अपनी उत्तर पुस्तिकाएं देख सकेंगे। सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी है कि परीक्षाओं की जांची गई उत्तर पुस्तिकाएं सूचना के दायरे में आती हैं और सूचना के अधिकार कानून के तहत परीक्षार्थियों को इन्हें देखने का अधिकार है तथा इसी कानून के तहत परीक्षाएं आयोजित करने वाली निकाय के अधिकारियों का यह कर्तव्य है कि वे इन उत्तर पुस्तिकाओं को छात्रों को उपलब्ध कराएं। शीर्षस्थ अदालत ने यह व्यवस्था ५ फरवरी, २००९ को कलकत्ता हाई कोर्ट के एक फैसले के खिलाफ दायर अपील को खारिज करते हुए दी है। इस व्यवस्था को शिक्षा मंडलों, विश्वविद्यालयों तथा कुछ सार्वजनिक निकायों की प्रतियोगी परीक्षाओं की मूल्यांकन प्रणाली को साफ-सुथरा, जिम्मेदार और पारदर्शी बनाने की दिशा में एक सटीक व्यावहारिक पहल कहा जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने अपील करने वाली परीक्षक संस्थाओं की इस दलील को खारिज कर दिया कि जांची गई उत्तर पुस्तिकाएं छात्रों को दिखाने से समूची परीक्षा प्रणाली ध्वस्त हो जाएगी। अदालत की इस पहल से छात्रों को अपनी शंकाओं के वे जवाब मिल सकेंगे जिन्हें अब तक गोपनीयता कानून की आड़ में देने से इनकार कर दिया जाता था। हालांकि ऐसा नहीं है कि परीक्षाएं आयोजित करने वाले ज्यादातर संस्थानों के परीक्षा परिणामों में घपले ही घपले होते हों या ज्यादातर छात्रों की उत्तर पुस्तिकाओं का गलत या पक्षपातपूर्ण मूल्यांकन कर उनके भविष्य से खिलवाड़ किया जाता हो। लेकिन यह भी तथ्य है कि कई परीक्षाओं के परिणामों में प्रतिभा और मूल्यांकन के बीच कोई साम्य नहीं होता है। इसके पीछे कई वजहें हैं। मसलन मूल्यांकन करने वाले की संबंधित विषय में अपर्याप्त योग्यता, मूल्यांकन की पूर्वाग्रही मानसिकता, रसूखदारों की संतानों को ज्यादा नंबर देने की द्रोणाचार्य वाली परंपरा और पैसे के लिए नंबर घटाने-बढ़ाने का खेल लंबे अरसे से स्कूल-कॉलेजों में चला आ रहा है। इसी के चलते आमतौर पर जब भी स्कूल, कॉलेजों और प्रतियोगी परीक्षाओं के नतीजों में अच्छी पढ़ाई करने वाले छात्र यह पाते हैं कि नतीजे उनकी उम्मीद के मुताबिक नहीं हैं तो उनके लिए इसकी वजह समझ पाना काफी मुश्किल होता है और कई छात्र तो निराश होकर गलत राह पर चल पड़ते हैं या आत्महत्या जैसा कदम भी उठा लेते हैं। उम्मीद है कि सुप्रीम कोर्ट की इस ताजा पहल से ये सारे अप्रिय सिलसिले अब बहुत हद तक थम जाएंगे।

नवभारत टाइम्स के विचार देखिएः
परीक्षार्थियों को बड़ी राहत देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि सूचना के अधिकार (आरटीआई) के तहत परीक्षा की कॉपी देखी जा सकती है। एक परीक्षार्थी को इसका पूर्ण अधिकार है। असल में स्कूल, कॉलेज और खासकर प्रतियोगिता परीक्षाओं में अपने प्रदर्शन को लेकर स्टूडेंट्स हमेशा संशय में रहा करते थे। उन्हें समझ में नहीं आता था कि आखिर किन कारणों से उनके नंबर कम आए, या क्यों नहीं उनका नौकरी में चयन हो पाया। स्कूल-कॉलेजों में तो पुनर्मूल्यांकन की कुछ न कुछ व्यवस्था की गई है, पर विभिन्न नौकरियों के लिए चयन परीक्षाएं आयोजित करने वाले संस्थानों ने तो इसे रहस्य बना रखा था। उन्हें मंजूर नहीं था कि कोई उनकी चयन प्रक्रिया को जानने की कोशिश करे या उस पर सवाल उठाए। उनकी दलील रही है कि वे उत्तर पुस्तिकाओं के संरक्षक हैं, जो उनके पास विश्वास के आधार पर सुरक्षित रहती हैं। 

लेकिन अदालत ने इसे नहीं माना। दरअसल यह मामला पहले कलकत्ता हाईकोर्ट में आया था। हाईकोर्ट ने भी यही कहा था कि परीक्षा आयोजित करवाने वाले निकाय उत्तर पुस्तिकाओं के संरक्षक होने का दावा कर उन्हें सार्वजनिक करने से इनकार नहीं कर सकते। उत्तर पुस्तिकाएं भी एक सूचना हैं, जिन्हें सार्वजनिक किया जाना चाहिए। इसमें गोपनीयता नहीं होनी चाहिए। अब सुप्रीम कोर्ट ने भी इस पर मुहर लगा दी है। इस बात पर विशेषज्ञों में विवाद होता रहा है कि परीक्षा की वर्तमान पद्धति उचित है या नहीं। लेकिन तमाम बहसों के बावजूद अभी तक हम इसका विकल्प नहीं ढूंढ पाए हैं। 

ऐसे में यह जरूरी हो जाता है कि वर्तमान ढांचे को ही बेहतर बनाया जाए और इसी में यथासंभव प्रयोग किए जाएं। इसका एक रास्ता है -इसे पारदर्शी बनाना। जब एक परीक्षार्थी अपनी कॉपी देखेगा, तभी तो अपने प्रदर्शन का मूल्यांकन कर सकेगा। अपनी खूबियों-खामियों को समझ सकेगा। इससे उसे अगली तैयारी में सहायता मिल सकेगी। इससे परीक्षकों पर भी दबाव पैदा होगा। अभी कौन परीक्षक क्या करके निकल जा रहा है, इसकी मॉनिटरिंग की कोई ठोस व्यवस्था नहीं है। यह मानकर चला जाता है कि किसी विषय के विशेषज्ञ ने सही ही फैसला किया होगा। लेकिन जब जांची हुई कॉपियों के देखने की व्यवस्था होगी तो वे सचेत रहेंगे ताकि कोई उन पर कोई उंगली न उठा सके। 

अभी न जाने कितने परीक्षार्थी किसी परीक्षक की लापरवाही या अगंभीर रवैये का खमियाजा भुगतते होंगे। सच कहा जाए तो अदालत के इस फैसले ने कई बंद दरवाजे खोल दिए हैं। अब बहस सिलेबस और प्रश्नपत्र के पैटर्न से आगे बढ़कर जांच के तरीके पर भी जाएगी, खासकर सब्जेक्टिव प्रश्नों के संदर्भ में। शिक्षा और परीक्षा को जितना खोला जाएगा, उसमें उतनी ही वैज्ञानिकता, व्यापकता और ताजगी आएगी। दरअसल इस क्षेत्र को उन कूढ़मगज नौकरशाहों से मुक्त करने की जरूरत है, जो सारी चाबियां अपनी मुट्ठी में रखना चाहते हैं और इसलिए नई पहलों का रास्ता रोके रखते हैं।

दैनिक भास्कर ने इस विषय पर कल ही अपना संपादकीय लिखा थाः
अपनी उत्तर पुस्तिका मांगना अब हर विद्यार्थी का अधिकार है। इससे सूचना के अधिकार (आरटीआई) के तहत नागरिकों के सशक्तीकरण की परिघटना एक कदम और आगे बढ़ी है। अब यह उम्मीद करने की पूरी वजह है कि इसका सकारात्मक प्रभाव शिक्षा के हर चरण पर पड़ेगा। 

सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी है कि जांची गई कॉपियां ‘सूचना’ की परिभाषा के तहत आती हैं और इसलिए इसे आरटीआई के तहत उपलब्ध कराना सार्वजनिक अधिकारियों का कर्तव्य है। इस तरह अब कोई भी परीक्षा, जिसे चाहे कोई भी एजेंसी आयोजित करती हो, उसकी कॉपियां आरटीआई के तहत उस एजेंसी को देनी होंगी। 

इससे अनेक छात्रों की इस पुरानी शिकायत का निवारण हो सकेगा कि उन्होंने लिखा तो अच्छा था, लेकिन नंबर नहीं आए। ऐसे कई छात्रों की शिकायत में दम रहता है। इसका कारण यह है कि अक्सर उत्तर पुस्तिकाओं की जांच को परीक्षा एजेंसियां गंभीरता से नहीं लेती हैं। 

कॉपी जांचने के लिए हास्यास्पद रूप से कम पैसा दिया जाता है। नतीजतन, शिक्षकों के लिए कॉपी जांचना किसी तरह निपटा देने का एक काम बन जाता है। बाहरी लोगों से कॉपी जंचवाने के बढ़ते चलन के साथ स्थिति और बदतर हो गई है। 

ऐसे में अब जबकि जांची कई कॉपियों पर गोपनीयता का आवरण नहीं रहेगा, परीक्षा एजेंसियां पहले जैसी ‘आजादी’ नहीं बरत पाएंगी। आरटीआई ने पहले से ही शिक्षा संस्थानों को ज्यादा जवाबदेह बनाया है, लेकिन अब खासकर उस क्षेत्र को ही ध्यान में रखकर दिया गया फैसला उन पर और परीक्षा व्यवस्था पर निगरानी का कारगर जरिया बन सकता है। 

सर्वोच्च न्यायालय ने इन एजेंसियों की यह दलील नहीं मानी कि अगर उत्तर पुस्तिकाएं मांगना छात्रों का अधिकार बन गया, तो ऐसी अर्जियों की बाढ़ आ जाएगी और उनके लिए काम करना मुश्किल हो जाएगा। अदालत ने इन व्यावहारिक दिक्कतों पर पारदर्शिता को तरजीह दी। यह स्वागतयोग्य है।

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