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19 अगस्त 2011

अनुसूचित जातियों के प्रति अपने दायित्व से मुंह मोड़ती कम्पनियां

जातिभेद का रोग किस तरह ब्रिटेन में आयात हुआ है इस बारे में हाल की खबरें खुलासा करती हैं। इस सिलसिले में विजय एवं अमरदीप बेगराज नामक भारतीय मूल के एक जोड़े ने अपने ब्रिटिश नियोक्ता की फर्म हीर मानक के खिलाफ अदालत का भी दरवाजा खटखटाया है। उनके मुतातिबक दलित पृष्ठभूमि से आने वाले विजय एवं जाट पृष्ठभूमि की अमरदीप की शादी उनके नियोक्ताओं को पसंद नहीं थी और इसी आधार पर उन्हें भेदभाव झेलना पड़ा। याद रहे कि ब्रिटेन में भारतीय समुदाय में जातिभेद की घटनाओं को लेकर पिछले दिनों एक रिपोर्ट का भी प्रकाशन हुआ था, लेकिन यह पहली बार है जबकि किसी ने इस सिलसिले में मुकदमा दर्ज कराया है। साफ है कि भारतीय मूल का कारपोरेट सेक्टर फिर वह चाहे ब्रिटेन में बसा हो या यहां पर स्थित हो उसके असमावेशी सोच के बारे में यह कोई पहली मिसाल नहीं है। अभी ताजा उदाहरण यह है कि सरकार के तमाम निर्देशों के बावजूद तथा इस काम के लिए सरकार की तरफ से तमाम छूटें हासिल करने के बावजूद निजी क्षेत्र से जुड़े बैंक अनुसूचित तबके के लोगों के कल्याण के प्रति अत्यंत निष्कि्रय दिखते हैं। यह भी मालूम हुआ है कि एचडीएफसी, आइसीआइसीआइ और एक्सिस बैंक जैसे निजी क्षेत्र के अग्रणी बैंकों द्वारा वित्तीय वर्ष 2010-11 में अनुसूचित तबके के छात्रों को अनुक्रम से महज 1.58 करोड रुपये, 57 लाख रुपये और 37 लाख रुपये के कर्ज दिए गए हैं। निजी क्षेत्र के बैंकों के संदर्भ में सार्वजनिक क्षेत्र के छोटे बैंक चाहे इंडियन बैंक हो, आंध्र बैंक अथवा सिंडिकेट बैंक ने अनुसूचित जाति एवं जनजाति तबके से आने वाले छात्रों को काफी कर्ज उपलब्ध कराया है। पिछले दिनों राज्यसभा में प्रश्नों का जवाब देते हुए वित्त मंत्रालय की तरफ से बताया गया किर् इंडियन बैंक द्वारा इस सिलसिले में 484.56 करोड रुपये, आंध्र बैंक द्वारा 146.08 करोड रुपये और सिंडिकेट बैंक द्वारा 109.47 करोड रुपये दिए जाचुके हैं। देश का सबसे बड़ा कर्जदाता स्टेट बैंक ऑफ इंडिया अनुसूचित तबके को कर्जा देने के मामले में उतना आगे नहीं है। उसकी तरफ से वित्त वर्ष 2010-2011 के अंत में 238 करोड़ रुपये कर्ज दिया गया है। ध्यान रहे कि इंडियन बैंक एसोसिएशन जो सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्र के बैंकों एवं विदेशी बैंकों का प्रतिनिधि संगठन है उसकी तरफ से बहुत पहले वित्तीय समावेशन को लेकर मॉडल एजूकेशन लोन स्कीम के नाम से एक गजट जारी किया गया है। इसके अंतर्गत भारत के नागरिक जिन्होंने प्रोफेशनल एवं तकनीकी शिक्षा के पाठयक्रमों में प्रवेश परीक्षा या मेरिट आधारित चयन प्रक्रिया के जरिये प्रवेश हासिल किया है, वे शैक्षिक कर्जा पाने के हकदार हैं। निजी बैंकों के ऐसे विशिष्ट रुख को कैसे समझा जा सकता है? क्या यह मान लिया जाए कि निजी बैंक ही नहीं हिंदुस्तान के कारपोरेट क्षेत्र के दरवाजे भी मुख्यत: भद्र जातियों तक ही सीमित हैं? इसी साल के पूर्वा‌र्द्ध में भारतीय उद्योगपतियों के सबसे बड़े संगठन कहे जाने वाले कॉनफेडरेशन ऑफ इंडियन इंडस्ट्रीज यानी सीआइआइ द्वारा इस सिलसिले में किए गए सर्वेक्षण के आंकड़े प्रकाशित हुए थे। सीआइआइ के सदस्य उद्योगों में लगभग 35 लाख लोग कार्यरत हैं। प्रस्तुत सर्वेक्षण के तहत 22 राज्यों एवं केंद्र शासित प्रदेशों में फैले उसके सदस्यों का एक सैंपल सर्वे किया, जिसके तहत 8,250 कर्मचारियों अथवा कामगारों से जानकारी हासिल की गई। सर्वेक्षण में कुछ विचलित करने वाले तथ्य सामने आए हैं। मसलन भारत के सबसे औद्योगिक कहे जाने वाले राज्यों में निजी क्षेत्र में अनुसूचित जाति एवं जनजातियों का अनुपात, राज्य की आबादी में उनके अनुपात को कहीं से भी प्रतिबिंबित नहीं करता। उदाहरण के लिए वर्ष 2008-2009 के वार्षिक उद्योग सर्वेक्षण में औद्योगिकरण एवं रोजगार के मामले में महाराष्ट्र दूसरे नंबर पर है, जबकि वहां इन तबकों का रोजगार में अनुपात महज पांच फीसदी है जो राज्य में उनकी आबादी के 19.1 प्रतिशत से काफी कम है। अगर हम महाराष्ट्र के सीआइआइ से जुड़े उद्योगों में कार्यरत आबादी को देखें तो अकेले महाराष्ट्र में लगभग 20.72 लाख लोग कार्यरत हैं। महाराष्ट्र जैसी स्थिति गुजरात की है जो वार्षिक उद्योग सर्वेक्षण के मुताबिक चौथे नंबर पर है मगर वहां निजी क्षेत्र में अनुसूचित जाति एवं जनजातियों का प्रतिशत महज नौ फीसदी है जो आबादी में उनके 21.9 प्रतिशत से काफी कम है। अकेले तमिलनाडु में इन वंचित तबकों का निजी क्षेत्र में अनुपात आबादी में उनके हिस्से के लगभग समानुपातिक है। वहां इनकी आबादी का प्रतिशत 20 फीसदी है जबकि उद्योगों में उनकी उपस्थिति का प्रतिशत 17.9 फीसदी है। दक्षिण के अन्य राज्यों में भी इसी किस्म की स्थिति है। यहां सवाल यही उठता है कि जिन आग्रहों के चलते निजी क्षेत्र के कर्णधार अपने यहां उत्पीडि़तों-वंचितों के लिए सकारात्मक कार्रवाई की नीतियां चलाने के प्रति इतना अनिच्छुक दिखते हैं उन्हें कहां तक उचित माना जा सकता है। विडंबना यही कही जाएगी कि कारपोरेट क्षेत्र का असमावेशी रुख सिर्फ सामाजिक तौर पर बहिष्कृत रहे तबकों तक सीमित नहीं है। वह विकलांगों के प्रति भी उतनी ही असहिष्णु है। आंकड़े बताते हैं कि विकलांगता को लेकर समूचा कारपोरेट जगत विफल ही कहा जा सकता है। विकलांगों के रोजगारों को लेकर निजी क्षेत्र की बात करें तो यह बात स्पष्ट होती है कि निजी क्षेत्रों में उनके रोजगार अवसर नाममात्र के होते हैं। जहां बड़ी निजी फर्मो में यह आंकड़ा 0.3 फीसदी दिखता है तो बहुराष्ट्रीय कंपनियों में महज 0.05 फीसदी तक ही पहुंचता है। विश्व बैंक की रिपोर्ट पीपुल विथ डिसएबिलिटीज इन इंडिया में यह आंकड़े प्रकाशित हुए हैं। दो साल पहले विकलांगों के प्रति उसके इस बेहद असंवेदशील रुख की खबर सुर्खियों में रही थी। वर्ष 2008-09 के अपने वित्त बजट के छमाही आकलन के बाद सरकार ने यह पाया था कि विकलांगों के कल्याण के नाम पर उसने जिस योजना का बहुत प्रचार किया और उसके लिए अठारह सौ करोड़ रुपये की अनुदान राशि निजी कारपोरेट समूहों को दी वह बिल्कुल अछूती ही रह गई। इन दिनों देश में निजी बैंकों को यहां कारोबार करने के लिए लाइसेंस देने के लिए चर्चा चल रही है। एंट्री ऑफ न्यू बैंकर्स इन द प्राइवेट सेक्टर नाम से रिजर्व बैंक की तरफ से इस सिलसिले में चर्चा के लिए परिपत्र भी जारी किया गया है, लेकिन इस बारे में सरकार को सावधानी बरतनी चाहिए कि कहीं यह केवल सक्षम और समर्थ लोगों तक के लिए सीमित न रह जाएं। इसके लिए भारत के प्रबुद्ध समुदाय को जागरूक होने की जरूरत है। उसे इस बात पर जोर देना चाहिए कि बाजार में मुनाफे के लिए पहुंचने के लिए लालायित इन निजी बैंकों से यह गारंटी सुनिश्चित की जाए कि वह अपने सामाजिक कर्तव्यों और जिम्मेदारियों के प्रति भी सचेत रहें वरना उनके लाइसेंस समाप्त किए जा सकते हैं(सुभाष गताडे,दैनिक जागरण,19.8.11)।

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