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16 अगस्त 2011

आरक्षण पर राजनीति

यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि हमारे देश में शुरू से ही आरक्षण की व्यवस्था पर राजनीति होती रही है। अब तो आरक्षण के नाम पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर भी हमले शुरू हो गए हैं। हाल ही में रिलीज फिल्म आरक्षण के कुछ संवादों और दृश्यों पर दलित नेताओं को ऐतराज है। हालांकि दलित नेताओं की आपत्ति के बाद फिल्म से ये संवाद और दृश्य हटा लिए गए हैं लेकिन इसके बावजूद उन्होंने फिल्म का विरोध जारी रखा। क्या यह दलित नेताओं का खोखला आदर्शवाद नहीं है? जिन संवादों और अनुभवों से दलितों को अपने वास्तविक जीवन में रोज दो-चार होना पड़ता है अगर वे संवाद और दृश्य दलितों की पीड़ा व्यक्त करने के उद्देश्य से फिल्म में आते हैं तो उन पर इतनी आपत्ति क्यों? विडंबना यह है कि आरक्षण के तवे पर सब अपनी-अपनी रोटियां सेंक रहे हैं। अब समय आ गया है कि हम दलितोद्धार के अन्य विकल्पों पर भी विचार करें। अगर आरक्षण ही करना है तो सरकार को अपने बजट का एक बड़ा भाग दलितों के लिए आरक्षित करना चाहिए ताकि इस बजट से दलितों के लिए अच्छे हॉस्टल, पुस्तकालय और कोचिंग जैसी सुविधाओं की व्यवस्था की जा सके और दलित व पिछड़े वर्गो के छात्र प्रतियोगी परीक्षाओं के माध्यम से आत्मविश्वास के साथ अगड़ी जातियों के छात्रों से आगे निकल सकें। दलितों को आगे बढ़ाने के लिए अगड़ी जातियों को भी आगे आना होगा। इस उद्देश्य के लिए सरकारी व्यवस्था के तहत निजी संस्थानों में दलितों को प्रोत्साहित किया जा सकता है। इससे समाज में भी यह संदेश जाएगा कि अगड़ी जातियां दलितों की दुश्मन नहीं हैं। दुख की बात यह है कि अभी तक निजी क्षेत्र ने दलितों को प्रोत्साहित करने के लिए कोई सकारात्मक कदम नहीं उठाया है। हाल ही में एक बार फिर कुछ जाट नेताओं ने आरक्षण के नाम पर सरकार को घेरने की चेतावनी दी है। गुर्जर नेता भी आरक्षण को लेकर मुखर हैं। आरक्षण एक ऐसी आग बन गया है जिसे बुझाने की जितनी कोशिश की जाती है, यह उतनी ही भड़कती है। इस समय प्रत्येक जाति एवं वर्ग को आरक्षण एक ऐसा हथियार दिखाई दे रहा है, जिसके माध्यम से वे जिंदगी की बड़ी से बड़ी जंग जीत सकते हैं। यह सत्य है कि आरक्षण ने समाज की मुख्यधारा से कटे लोगों का जीवनस्तर सुधारा है, इसलिए आरक्षण के महत्व एवं उद्देश्यों पर शक नहीं किया जा सकता। लेकिन सवाल यह है कि क्या आज भी आरक्षण का उद्देश्य वही रह गया है जो इस व्यवस्था की स्थापना के समय था? क्या कारण है कि आज समाज की मुख्यधारा से कटे लोगों के उत्थान के लिए आरक्षण को ही एकमात्र विकल्प के तौर पर प्रस्तुत किया जा रहा है? अगर हमारे नीति-निर्माताओं को दबे-कुचले लोगों के उत्थान या पतन की वास्तविक चिंता होती तो कुछ ऐसी नीतियां बनाई जातीं जिनसे ऐसे लोग आत्मविश्वास से सराबोर होकर स्वयं ही आरक्षण जैसी व्यवस्था को नकार देते। आरक्षण को ही जिंदगी की सफलता का सूचक मान लेना तर्कसंगत नहीं है। हमें यह समझने की जरूरत है कि इस दौर में हमारे राजनेता हमें आरक्षण का स्वप्न दिखाकर अपना हित साध रहे हैं। इन सब बातों का अर्थ आरक्षण का विरोध करना नहीं है। अगर आरक्षण को राजनीति से न जोड़ा जाता तो यह दबे-कुचले लोगों के उत्थान का सशक्त माध्यम होता। हमारे राजनेताओं द्वारा आरक्षण को राजनीति से जोड़ने के कारण आज यह व्यवस्था नेताओं के उत्थान का एक सशक्त माध्यम बन गई है। आरक्षण की राजनीति के कारण अगर किसी का पतन हो रहा है तो वह आम जनता ही है। सवाल यह है कि आरक्षण के नाम पर सरकार एवं एकदूसरी जातियों को घेरने की राजनीति कब तक होती रहेगी? इस समय कुछ पिछड़ी जातियां अन्य जातियों को पिछडे़ वर्ग में शामिल करने पर एतराज जता रही हैं। इसलिए विभिन्न जातियों के बीच आपसी संघर्ष बढ़ता जा रहा है। अगर आरक्षण के नाम पर समाज से आपसी भाईचारा खत्म हो रहा है तो इसकी प्रासंगिकता पर पुनर्विचार किया जाना आवश्यक है(रोहित कौशिक,दैनिक जागरण,16.8.11)।

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