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28 अक्तूबर 2011

खो रहा है भाषा का चरित्र

रूसी न्यूज चैनल के संस्कृति विषयक एक प्रसारण में चीन में यह चिंता व्याप रही है कि वहां के छोटी अवस्था के बच्चे अपनी चीनी लिपि लिखनी सीखने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखा रहे हैं। उस मुश्किल चित्रलिपि लिखनी सीखने की माथापच्ची कोई क्यों करे, बच्चे कंप्यूटर पर उंगलियां थिरका कर बड़ी तेजी से अपनी लिपि में मनचाहा लिख सकने में समर्थ हैं। एक बहुत ही छोटा बच्चा जो चारेक बरस का होगा, जिस फुर्ती और सहजता से कंप्यूटर पर उंगलियां चला रहा है, मानो बच्चों के किसी खिलौने पियानो पर उंगलियों से तरन्नुम से में गा रहा है। कैमरे के फोकस में इससे कुछ और बड़ी आयु के बच्चे आ रहे हैं, वे भी पूर्ण दत्तचित्त होकर कंप्यूटर पर अपनी भाषा में लिख रहे हैं। फिर उद्घोषक कहता है कि चीन में यह माना जाता है कि जो लोग अपनी मातृभूमि को प्यार करते हैं, उसके लिए चीनी लिपि लिखना जानना बहुत जरूरी है। इसीलिए वहां सुलेख शिक्षा यानी केलीग्राफी के स्कूल और उनमें निष्णात शिक्षक हैं जो बड़े मनोयोग से विभिन्न प्रकार के मोटे-पतले ब्रशों द्वारा इस चित्रात्मक लिपि को लिखने का ज्ञान व अभ्यास बच्चों को देते हैं-उनको भी कैमरा दिखा रहा है। यह एक उदाहरण है कि किस प्रकार भूमंडलीकरण हमारी पुरानी से पुरानी भाषाओं को लील रहा है। विज्ञापन का मायावी संसार अपनी तरह से भाषाओं के चरित्र को फूहड़ बना रहा है, गो एक वर्ग ऐसा भी है जो यह मानता है कि इस सबसे भाषा का बंधा हुआ रूप भाषा को एक नया लचीलापन, एक नई छवि तथा लोच प्रदान कर रहा है, बाजार को भाषा के लिए तैयार होना ही है। यह उसके विकास का स्वाभाविक अगला चरण है।


इसका दूसरा पक्ष यह है कि हमारी भाषाओं का चरित्र पूरी तरह विरूपित हो रहा है, वे एक नए प्रकार की विपन्नता प्राप्त कर रही हैं-उनके चारित्रिक विकास में आए कितने ही शब्द विलुप्त हुए जा रहे हैं और हम जबरन उन्हें अपनी स्मृति से इस प्रकार गायब कर रहे हैं कि दस-पांच वर्षों में रोजमर्रा के अनेक हिंदी शब्द केवल कोश की ही शोभा बढ़ा रहे होंगे, प्रयोग उनका बिलकुल नहीं रह जाएगा। होटलों में जाती नई पीढ़ी उड़द की दाल और अरहर की दाल भूलती जा रही है - होटल में बैठकर काली दाल, मक्खनी दाल या पीली दाल का आदेश देती है। ऑर्डर नोट करने वाले बैरे की शब्दावली भी काली दाल या पीली दाल की ही रह गई है, दो-चार साल पहले सुना जाता रहा शब्द मांह की दाल अब सुनने में नहीं आता। नाश्ता सुबह का या कलेवा शब्द धीरे-धीरे गुमनामी में जा रहा है, ब्रेकफास्ट ने उसे धक्का देकर अपनी जगह बना ली है। हमारे कुत्तों तक के पारंपरिक नाम मोटी, झबरा, डब्लू, कालू आदि बिला गए हैं, सिर्फ अंग्रेजी नाम ही रह गए हैं। हमारे अपने बच्चे प्यारे-प्यारे नहीं रहे क्यूट बन गए हैं। 

अपनी जड़ों से काट कर वैश्विक नागरिक बनाना वैश्वीकरण की प्रक्रिया का स्वाभाविक अंग है। क्या इस आंधी को रोकने का कुछ प्रयत्न अब भी किया जा सकता है? वैसे लगता तो नहीं कि यह संभव होगा(पुष्पपाल सिंह,नई दुनिया,दिल्ली,25.10.11)।

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