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17 दिसंबर 2011

यूपीःआरक्षण के बहाने अल्पसंख्यकों को लुभाने की पुरजोर कोशिश

आगामी विधानसभा चुनाव के मद्देनजर हर दल खुद को अल्पसंख्यकों का न केवल हितैषी बताने पर आमादा है बल्कि दूसरे दल को अल्पसंख्यक विरोधी करार देने में भी जुटा हुआ है। सपा, बसपा और कांग्रेस तीनों के दिग्गज नेता एक दूसरे पर अल्पसंख्यक मतदाताओं को केवल वोट बैंक की शक्ल में देखने की तोहमत म़ढ़ते नहीं थक रहे हैं। यही नहीं, इन्हीं मतदाताओं के भरोसे पीस पार्टी और उलेमा काउंसिल सरीखी आधा दर्जन पार्टियां अगले विधानसभा चुनाव के बाद सत्ता की चाभी अपने पास होने का मनसूबा पाल बैठी हैं। अल्पसंख्यक मतदाताओं का साथ पाने को बेताब राजनीतिक दल कोई भी फॉर्मूला आजमाने को तैयार हैं। इन सभी दलों में अल्पसंख्यकों को रिझाने की हो़ड़ में भाजपा नेताओं को भी आगामी विधानसभा चुनाव को लेकर खुशफहमी पालने का मौका दे दिया है।

२००१ की जनगणना के मुताबिक अल्पसंख्यकों की तादात तकरीबन पौने चार करो़ड़ के आसपास बैठती है जो पूरी आबादी का १८.५ फीसदी है। राज्य के तकरीबन १२० सीटों पर अल्पसंख्यक मतदाताओं का असर दिख सकता है जबकि ८० सीटें ऐसी हैं जहां ये निर्णायक भूमिका अदा करते हैं। अमरोहा, कैराना सहारनपुर, गाजीपुर, मऊ, वाराणसी, कानपुर और अलीग़ढ़ ऐसे इलाके हैं जहां मुस्लिम आबादी बीस से ४९ फीसदी तक हैं। रामपुर में ५२.९१ फीसदी, मुजफ्फरनगर में ३९.२७ फीसदी, मुरादाबाद में ४६.१२ फीसदी, बिजनौर में ४५.५६ फीसदी, मेरठ में ३४.४० फीसदी, बलरामपुर में ३७.०५ तथा सिद्वार्थ नगर में २९.९५ फीसदी अल्पसंख्यक जमात के लोग रहते हैं जबकि बहराइच में ३५.४२ फीसदी, लखीमपुर में २२.५४ फीसदी, बाराबंकी में २२.४३ फीसदी और लखनऊ में २१.७३ फीसदी अल्पसंख्यक बसते हैं। यही नहीं, उत्तर प्रदेश की ४३ ऐसी विधानसभा सीटें हैं जहां निर्वाचन आयोग अपने दस्तावेज उर्दू में प्रकाशित कराता है।


१९६० से पहले मुलसमान उत्तर प्रदेश में कभी वोट बैंक नहीं रहा । अगस्त १९६४ में लखनऊ के नदवा कालेज में एक जलसा हुआ जिसमें मुस्लिम मजलिस मुशावरात का गठन हुआ । १९६७ के चुनाव में इस गैर सियासी संगठन ने नौ सूत्रीय मांग पर तैयार कर कहा कि जो राजनीतिक दल इन्हें मानेगा मुसलमान उसे ही वोट देगा। तीन जून १९६८ को फरीदी के नेतृत्व में मुस्लिम मजलिस बनी । इसका भी यही हश्र हुआ। इस समय तक देवबंद मुस्लिम राजनीति का महत्वपूर्ण केंद्र बनकर उभर चुका था। मौलाना असद मदनी नेता थे । उनके रिश्ते कांग्रेस से थे। १९७७ में नसबंदी के सवाल पर मुसलमान कांग्रेस से एक झटके में अलग हो गया । २००५ में १२ मुस्लिम संगठनों ने मिलकर कौमी मुजाहिदा नामक राजनीतिक दल बनाया । तौकीर रजा खां राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाए गए। २००७ में २० मार्च को धर्म गुरु मौलाना कल्बे जवाद और टीमे वाली मस्जिद के इमाम फजलुर्रहमान वाइजी ने संयुक्त उलेमा काउंसिल गठित कर कौम की नुमाइंदगी का ऐलान किया लेकिनअकलियत के वोटों पर राज कर रही सपा अथवा इन्हीं मतों पर एक मुश्त दावे की फिराक में जुटी बसपा और कांग्रेस को अल्पसंख्यकों के अलग दल की सियासत राज नहीं आई। राम जन्म भूमि बाबरी मस्जिद मामले में कांग्रेस के ढुलमुल रवैये ने सपा के पाले में सपा के पाले में ख़ड़े होने को विवश कर दिया। यहीं से मुलायम सिंह यादव का माई (मुस्लिम-यादव) समीकरण बना। यह बात दीगर है कि इन दिनों उन्हें कांग्रेस की चालों और बसपा की कोशिशों के चलते इस समीकरण में सेंध लगती नजर आ रही है। यही वजह है कि राम जन्म भूमि के मामले पर आए अदालती फैसले पर जब सभी सियासी दलों ने चुप्पी साध रखी थी तब मुलायम सिंह यादव ने इस फैसले पर टिप्पणी कर अल्पसंख्यक जमात के लोगों का खुद को फिक्रमंद जताया । मुलायम सिंह यादव के ही बयान को ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड ने भी अक्षरशः दोहराया लेकिन तकरीबन २२ साल से उत्तर प्रदेश की सत्ता से बाहर चल रही कांग्रेस ने विधानसभा चुनाव के टिकटों में हिस्सेदारी ब़ढ़ाने की बात हो या सच्चर समिति की सिफारिशें लागू करने अथवा रंगनाथ मिश्र आयोग के कहे पर अमल करना ही नहीं ओबीसी कोटे में अल्पसंख्यकों को आरक्षण देने के आश्वासन के चलते एक बार फिर अल्पसंख्यक मतदाता कांग्रेस की ओर देखने लगा है। यही नहीं, बुनकरों की कर्ज माफी तथा मुस्लिम बाहुल्य इलाकों में केंद्र सरकार की मदद से विकास काम करने के लिए तीन हजार करो़ड़ ヒपए देना भी इस जमात के मतदाताओं पर डोरे डालने का ही नतीजा है। केंद्र सरकार की यह अनुदान राशि राज्य के ४४ जिलों तक पहुंचने वाली है। यही नहीं, सांप्रदायिक हिंसा रोकथाम बिल लाकर भी कांग्रेस ने अल्पसंख्यकों को अपने पाले में ख़ड़ा करने की कवायद की लेकिन इस बिल के खिलाफ इस कदर गुस्सा फूटा और धु्रवीकरण हुआ कि भाजपा को फायदा होता देख कांग्रेस को अपने पैर पीछे खींचने प़ड़े। 

मुलायम सिंह के साथ कल्याण सिंह की मौजूदगी तथा १९९२ की घटना के लिए कांग्रेस के लचर रवैए तथा मायावती द्वारा भाजपा का साथ लेने और देने ही नहीं बल्कि गुजरात में नरेंद्र मोदी का प्रचार करने की स्थितियां किसी एक दल पर अल्पसंख्यक मतदाताओं पर टिकने का मौका और प्लेटफॉर्म मुहैया नहीं करा रही हैं। इसे राजीतिक दल भी समझते हैं। यही वजह है कि कल्याण सिंह का साथ लेने के लिए मुलायम ने माफी नामा जारी किया तो कांग्रेस यह कहती नजर आ रही है कि लिब्राहन आयोग ने ढांचे विध्वंस का जिम्मेदार कांग्रेस को नहीं माना है। यही नहीं, पीस पार्टी के लगातार ब़ढ़ते वर्चस्व ने भी मुस्लिम वोटों के ठेकेदार राजनीतिक दलों की नींद उ़ड़ा रखी है जबकि पीस पार्टी के लिए मंसूरी समाज, मोमिन अंसार सभा और राइन बागवान काउंसिल तथा उलेमा काउंसिल परेशानी का सबब बने हुए हैं। मंसूरी समाज, मोमिन अंसार और राइन बागवान तीनों सुन्नी समुदाय का ब़ड़ा हिस्सा बता रहे हैं(योगेश मिश्र,नई दुनिया,11.12.11)।

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