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28 मई 2012

छोटे कन्धों पर बड़ी पढ़ाई का बोझ

यूं तो शिक्षा पाने के लिए विद्यार्थी को स्कूल भेजने की एक उम्र होती है ताकि विद्यार्थी इस योग्य बन जाए कि वह शिक्षा पाने में सक्षम हो सके। कच्ची उम्र और विशेषकर जब बच्चे की उम्र इतनी नहीं होती है कि वह शिक्षा पा सके और उन हालातों में अगर बच्चे को स्कूल भेजा जाता है तो वह महज एक मजाक बनकर रह जाता है। 

आज के युग में अभिभावकों में एक होड़ देखने को मिलती है और वे अपने बच्चों को जितना जल्दी हो सके शिक्षा दिलाने के लिए स्कूल भेजना चाहते हैं। बच्चा चाहे कपड़े पहनना तो दूर कपड़ों के विषय में जानता तक नहीं है किंतु अभिभावक चाहते हैं कि उनका बच्चा जल्दी से शिक्षा पाकर जल्दी नौकरी लग जाए और जल्दी ही कमाई शुरू कर दे। उनका मुख्य उद्देश्य बच्चे को नौकरी पर देखना होता है। इसी होड़ के चलते विभिन्न स्कूलों में जहां कभी पहली कक्षा से स्कूली शिक्षा की शुरुआत होती थी वहां अब पहली से भी पहले नर्सरी और प्रि-नर्सरी कक्षाएं शुरू हो गई हैं। जहां पहले विद्यार्थी करीब छह वर्ष की उम्र होने पर ही स्कूल जाता था वहीं अब तीन या चार वर्ष की उम्र में ही स्कूल जाने लगा है। आने वाले समय में और भी पहले शिक्षा दिलाने का प्रबंध करना पड़ सकता है। अभिभावकों का कहना है कि जब अभिमन्यु अपनी माता के गर्भ में ही शिक्षा पा गया था तो क्यों न छोटी से छोटी कक्षा में ही विद्यार्थी को स्कूल भेजा जाए। 

एक जमाना था जब अभिभावक पहले अपने बच्चे को करीब छह से आठ वर्ष की उम्र में अपने घर पर रखते थे और जब बच्चा कुछ करने योग्य हो जाता और यहां तक कि वह कपड़े पहनने व खाना खाने आदि का ज्ञान प्राप्त कर लेता था तब अपने बच्चे को शिक्षालय भेजते थे ताकि वह शिक्षा के क्षेत्र में निरंतर अग्रस हो सकता था। उस जमाने में बड़ी आयु के विद्यार्थी ही शिक्षा पाते थे। वैसे भी अगर विद्यार्थी अपना काम कम से कम स्वयं नहीं कर पाता तो वह सच्चा विद्यार्थी नहीं कहलाएगा। अगर विद्यार्थी अपना काम स्वयं कर लेता था तो उसे स्कूल भेजा जाता था। यद्यपि उस जमाने में विद्यार्थी के बस्ते का बोझ कम ही होता था किंतु आज बिल्कुल उलट है। आज के दिन बस्ता बड़ा एवं भारी होता है और विद्यार्थी छोटा होता है। विद्यार्थी का बस्ता भी उसके अभिभावक स्कूल तक पहुंचाकर आते हैं और स्कूल से भी बच्चे को घर लाते हैं। यहां तक कि बच्चे का स्कूली काम भी अभिभावक ही पूरा करते हैं। 

शिक्षा के प्रति जागरूकता जरूर बढ़ी है। पहले वक्त था जब बच्चे बड़ी उम्र तक स्कूल नहीं भेजा जाता था और जब वह अधिक उम्र का हो जाता तो स्कूल से वंचित ही रख दिया जाता था। लड़कियों की शिक्षा पर तो कोई ध्यान तक नहीं दिया जाता था। आज उलटा हो गया है। लड़कियों की शिक्षा की ओर उतना ही ध्यान दिया जाने लगा है जितना लड़कों की शिक्षा की ओर। आज के जमाने में आम अभिभावक यह माने लग गया है कि अगर उसका लड़का ही नहीं अपितु लड़की भी शिक्षा पाएगी तो कम से कम क्षेत्र में नाम होगा। वैसे भी माना जाता है कि एक बच्ची का लिखा पढ़ा होने से एक नहीं अपितु दो परिवारों का भला हो सकता है। 

छोटी उम्र में शिक्षा दिलवाने की होड़ जहां तक कई मायनों में लाभकारी भी है तो कई मायनों में हानिकारक भी है। जहां लाभ का प्रश्न है तो विद्यार्थी अपनी बुद्धि के पूरे यौवन पर होने पर किसी भी परीक्षा में बैठकर अपना भाग्य आजमा सकेगा। ऐसा देखने में आता है कि छोटी उम्र में ही बच्चा बड़ी-बड़ी परीक्षाओं की तैयारी में लग जाता है। छोटी उम्र में शिक्षा पा लेने से उसे कई परीक्षाओं में मौका मिल पाएगा। बड़ी उम्र में अगर शिक्षा पाने लगेगा तो वह कई परीक्षाओं में भाग्य नहीं आजमा पाएगा। ऐसे में छोटी उम्र में कई लाभ हो सकते हैं। वैसे भी ग्रामीण क्षेत्रों में नर्सरी व प्रि-नर्सरी से पूर्व ही आंगनबाड़ी केंद्र खुल गए हैं। इन केंद्रों में बच्चों को स्कूल से पहले भेजा जाता है ताकि बच्चा स्कूल जाने के काबिल हो जाए। वैसे भी आंगनबाड़ी जैसे संस्थाओं ने बच्चे को शिक्षा पाने में मदद की है। छोटी उम्र में बच्चे को स्कूल भेजने की होड़ अधिक कारगर इसलिए नहीं है क्योंकि बच्चे का शारीरिक विकास नहीं पाता है और बच्चा पढ़ाई के बोझ तले दबता ही चला जात है। बच्चे का मानसिक विकास ही नहीं अपितु शारीरिक विकास भी नहीं हो पाता है। बच्चा मानसिक तनाव ग्रस्त होता चला जाता है। ऐसे में यह होड़ कई मायनों में हानिकारक साबित होती है। अगर बच्चे को सही एवं पूर्णरूप से विकसित होने का मौका दिया जाए तो वह किसी बड़ी से बड़ी मुश्किल से नहीं डर पाएगा और सदा आगे ही बढ़ता जाएगा।

छोटी उम्र में ही स्कूल भेजने का सपना साकार करने में निजी स्कूल का बड़ा हाथ है। वैसे तो सरकारी स्कूलों में नर्सरी कक्षाएं लगाई जाने लाने लगी हैं किंतु निजी स्कूलों में तो नर्सरी से भी छोटी कक्षाएं भी लगाई जाने लगी हैं। बच्चा घर का रास्ता तक नहीं जानता किंतु उसे स्कूल भेजने का रास्ता बताया जाता है। शहरी क्षेत्रों में जहां महिलाएं एवं पुरुष काम पर जाते हैं तो उनके पास अपने बच्चे की देखरेख का कोई समय नहीं होता है और वे इस प्रकार की विधि अपनाते हैं। अब तो ग्रामीण क्षेत्र भी कम नहीं हैं। शहरी विधियां ग्रामीण क्षेत्रों पर अपनाई जा रही हैं। छोटी उम्र में स्कूल भेज पाना निम्न मायनों में उचित नहीं लगता है :- 

1. शरीर का पूर्ण विकास नहीं हो पाता है। 

2. मानसिक रूप से परेशान रहता है।

3. उसके दिलों दिमाग पर एक बोझ बनता चला जाता है। 

4. बच्चे को अपने माता-पिता का पूरा प्यार एवं सामाजिक विकास नहीं पनप पाता है। 

5. परिवार से दूर रहने लग जाता है(होशियार सिंह,शिक्षालोक,दैनिक ट्रिब्यून,22.5.12)।

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